Wednesday, February 11, 2009

"आजादी एक चुनौती है"

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं। जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि में 'भारत की नियति के साथ मिलन' का संदर्भ देते हुए कहा कि स्वाधीनता प्राप्ति के साथ ही हमें एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए काम करना होगा, जहां प्रत्येक बच्चे, महिला और पुरूषों को बेहतर स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध हों।

भारत की आजादी के 61 वर्ष बीत गए। क्या पं नेहरू के उक्त संकल्प की दिशा में देश विकास की ओर अग्रसर है? आज विकास की दो दिशाएं दिखाई पड़ती है। एक है- इंडिया का विकास और दूसरा है- भारत का विकास। 'इंडिया' की अगुआई अंग्रेजियत में रंगे नौकरशाह, राजनेता, पूंजीपति और शहरी वर्ग के लोग कर रहे हैं, वहीं 'भारत' में समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े देश के 75 फीसदी गरीब, जो गांवों में रहते हैं, शामिल है। 'इंडिया' में लगातार बढ़ रहे 36 अरबपतियों की संख्या समाहित हैं तो 'भारत' में 77 करोड़ लोग, जिनकी आमदनी प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम है, शामिल है। असमानता की खाई इस कदर चौड़ी हो रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर श्री विमल जालान कहते है कि भारत के 20 सबसे अधिक धनवानों की आय 30 करोड़ सबसे गरीब भारतीयों से अधिक है। यही विषमता आज भारत की मुख्य समस्या है।

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो देश के सामने अनेक चुनौतियां मुंह बाएं खड़ी हैं। दुनिया भर में सबसे अधिक अरबपतियों की संख्या के हिसाब से भारत चौथे स्थान पर है। वहीं ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम 94वें स्थान पर हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 27।8 अनुमानित था। लोगों की आय, स्वास्थ्य, शिक्षा के आधार पर तैयार किए जाने वाले मानव विकास सूचकांक में 2004 में 177 देशों की सूची में भारत का स्थान 126 वां था।

हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा अभी भी खेती पर ही आश्रित है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 20 प्रतिशत से भी कम हो गया है। 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर हम आज भी खेती नहीं करते, जबकि इस जमीन पर जोत संभव है। गौरतलब है कि 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पाकिस्तान, जापान, बांग्लादेश और नेपाल के कुल सिंचित क्षेत्र से भी ज्यादा है।

भारत सरकार का वर्ष 2007-2008 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि 1990 से 2007 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 1।2 प्रतिशत कम हुआ है, जो कि जनसंख्या की औसतन 1।9 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोत्तरी की तुलना में कम है। इसके फलस्वरूप मांग और आपूर्ति में भारी अंतर है, जिसकी वजह से खाद्य संकट की आशंका बराबर बनी रहती है। 1990-91 में अनाजों की खपत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी जो कि 2005-2006 में प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई है। केन्द्र सरकार यह बात स्वीकार कर चुकी है कि हर साल लगभग 55,600 करोड़ रुपये का खाद्यान्न उचित भंडारन आदि न होने के कारण नष्ट हो जाता है।

हालात ऐसे हो गए हैं कि कृषि प्रधान देश भारत में 40 प्रतिशत किसान, खेती छोड़ना चाहता है। पिछले 10 वर्षों में 80 लाख लोगों ने खेती-किसानी छोड़ी है। एक आकलन के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार या तो भूमिहीन, उपसीमांत, सीमांत किसान है या छोटे किसान है। भारत की आजादी के 61 वर्षों बाद भी लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी साहूकारों पर निर्भर रहते हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे हमें बताता है कि किसानों की ऋणग्रस्तता पिछले एक दशक में लगभग दोगुनी हो गई है। देश के ४८.60 फीसदी किसान कर्ज के तले दबे हुए हैं। हर किसान पर औसतन 12,585 रू। का कर्ज है। भारतीय किसान परिवार का औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 302 रुपए है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1993 से अब तक करीब 1,12,000 किसान आत्महत्या कर चुके है।

आंकड़े बताते हैं कि प्रति व्यक्ति मिलने वाला अनाज घट गया है। इसका असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी दिखाई देता है। वर्ष 2005-2006 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में कहा गया है कि देश में 5 साल से कम उम्र के बच्चे शारीरिक रूप से अविकसित हैं और इसी उम्र के 43 फीसदी बच्चों का वजन (उम्र के हिसाब से) कम है। इनमें से 24 फीसदी शारीरिक रूप से काफी ज्यादा अविकसित हैं और 16 फीसदी का वजन बहुत ही ज्यादा कम है। देश में 15 से 49 साल की उम्र के बीच की महिलाओं का बॉडी मांस इंडेक्स (बीएमआई) १८।5 से कम है, जो उनमें पोषण की गंभीर कमी की ओर इशारा करता है और इन महिलाओं में से 16 फीसदी तो बेहद ही पतली हैं। इसी तरह देश में 15 से 49 साल की उम्र के 34 फीसदी पुरुषों का बीएमआई भी 18.5 से कम है और इनमें से आधे से ज्यादा पुरुष बेहद कुपोषित हैं। देश में कुपोषण के शिकार बच्चे की स्थिति के मामले में हमारा देश नीचे से 10 वें नंबर पर है।

सुगठित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय विकास की धुरी होती है लेकिन देश में शिक्षा-व्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। भारत में 300 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं पर उनमें से केवल दो ही हैं जो विश्व में पहले 100 में स्थान पा सकें। सन् 2005 में विश्वबैंक के अध्ययन में पता चला था कि हमारे देश में 25 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक तो काम पर जाते ही नहीं हैं। पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के 42 हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। देश के 32 हजार विद्यालयों में शिक्षक नहीं है। अमेरिका में कुल बजट का 19।9 प्रतिशत, जापान में 19।6 प्रतिशत, इंग्लैंड में 13.9 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि भारत में शिक्षा पर बजट का मात्र 6 प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है। शिक्षा पर केंद्र सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 3.54 फीसद और कुल सकल उत्पाद का 0.79 फीसद खर्च करती है जबकि राज्य सरकारें 2.73 फीसद खर्च करती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूल जाने वालों में 40 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट होते हैं और 42 प्रतिशत कुपोषण के शिकार। देश के 63 प्रतिशत बच्चे 10वीं कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। एक आकलन के मुताबिक भारत के मात्र 10 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है जबकि विकसित राष्ट्रों के 50 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है। विदेशों में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा ले रहे भारतीय छात्रों में से 85 फीसद वतन लौट कर नहीं आते।

इराक के बाद भारत सर्वाधिक आतंकवाद का दंश झेल रहा है। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चिंता व्यक्त की कि देश में आतंकवादियों के 800 से ज्यादा ठिकाने है। भारत में अब तक हुए आतंकवादी हिंसा में 70,000 से अधिक बेगुनाहों के प्राण चले गए, जबकि पाकिस्तान तथा चीन के साथ जो युध्द हुए हैं, उनमें 8,023 लोगों की मौतें हुई। गृह मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में नवंबर के अंत तक नक्सली हिंसा की 1385 घटनाएं हुईं, जिसमें 214 पुलिस कार्मिक व 418 नागरिक मारे गए, वहीं 2006 में 1389 घटनाएं हुईं, जिसमें 133 पुलिस कार्मिक व 501 लोग मारे गए। इस समय माओवादियों का प्रभाव 16 राज्‍यों में है। देश के 604 जिलों में 160 जिले पर माओवादियों या नक्सलवादियों का कब्जा है। देश का 40 प्रतिशत भू-भाग नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित है। पूर्वोत्तर की स्थिति चिंताजनक है। वर्ष 2007 में यहां 1489 हिंसक घटनाएं हुई, जिनमें 498 सामान्य नागरिक आंतकवादी हिंसा के शिकार हुए।

हमारी शासन प्रणाली मुकदमेबाजी को बढ़ावा दे रही है। भ्रष्टाचार का महारोग देश को आगे बढ़ने में बाधित कर रहा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संस्था के अनुसार दुनिया के 172 देशों में भारत भ्रष्टाचार के 72वें पायदान पर है। अलगाववादी प्रवृतियां राष्ट्रीय एकता को चुनौती दे रहा हैं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का विषवेल समाज को नुकसान पहुंचा रहा है। मीडिया के माध्यम से सहज ही पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण हो रहा है। जातिवाद, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न कर रहा है। घुसपैठ आंतरिक सुरक्षा को तार-तार कर रहा है। 2।5 करोड़ बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण देश पर 90 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। 13 प्रतिशत को छू रही महंगाई की दर लोगों का जीना मुहाल कर रही है। वहीं बेरोजगारों की संख्या लगभग 25 से 30 करोड़ है। हर साल 3।5 से 4 करोड़ नए रोजगार ढूढने वाले जुड़ रहे है। इस गंभीर समस्या का निदान होना अत्यंत जरूरी है।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ। एपीजे अब्दुल कलाम ने विजन 2020 की अवधारणा देश के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था कि वर्ष 2020 का भारत एक ऐसा देश हो, जिसमें ग्रामीण एवं शहरी जीवन के बीच कोई दरार न रहे। जहां सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो और देश का शासन जिम्मेदार, पारदर्शी और भ्रष्टाचारमुक्त हो। जहां गरीबी, अशिक्षा का कोई अस्तित्व न हो और देश महिलाओं एवं बच्चों के प्रति होनेवाले अपराधों से मुक्त हो।

राष्ट्रीय समृध्दि विरासत में नहीं मिलती, उसे बनाना पड़ता है। सिर्फ सरकार के भरोसे देश का विकास सुनिश्चित नहीं होगा। भारत आज एक युवा राष्ट्र है। इस समय 70 प्रतिशत से अधिक लोग 35 साल से कम उम्र के हैं। देश को समृध्दशाली बनाने की चुनौती युवाओं को स्वीकार करनी होगी, समस्याओं को कोसने के बजाए सार्थक हस्तक्षेप के लिए आगे आना होगा, तभी सही मायने में आजादी सार्थक होगी।

Friday, February 6, 2009

"मुस्लिम वोट की खातिर कहां तक गिरोगे"

राष्ट्रविरोधी ताकतें हिन्दुओं के मन में भय और दहशत का माहौल कायम कर रहे हैं। वे अमरनाथ यात्रियों पर पत्थर बरसा रहे है। 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों ने श्रीनगर के लाल चौक में पाकिस्तान का झंडा फहराया, जिन बोर्डों व होर्डिंग पर 'भारत या इंडिया' लिखा था उन्हें तहस-नहस कर दिया।

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के मामले का राजनीतिकरण करने और अमरनाथ यात्रा को भंग करने के उद्देश्य से कश्मीर घाटी में हिंसा फैलाने के विरोध में जम्मू में विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद समेत अनेक राष्ट्रवादी संगठनों के आह्वान पर जम्मू बंद का सफल आयोजन हुआ, जिसमें बढ़-चढ़कर लोगों ने हिस्सा लिया।

उल्लेखनीय है कि मुस्लिम वोटों के खिसकने के चक्कर में जम्मू-कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक दल नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी ज़मीन के हस्तांतरण का विरोध कर रही है, जबकि भारतीय जनता पार्टी इस भूमि आवंटन के पक्ष में है। प्रारंभ में कांग्रेस भी भूमि आवंटन के पक्ष में थी लेकिन अब वह भी राज्य में तुष्टिकरण की राजनीति को हवा देने में जुट गई है। सवाल यह है कि आखिर वोट के लिए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल कहां तक नीचे गिरेंगे? वोट के लिए देश को दांव पर लगाना उचित है?

सुविदित है कि पवित्र अमरनाथ गुफा दर्शन के लिए हर साल हज़ारों श्रध्दालु पहुँचते हैं। अलगाववादी नेता यह सवाल उठा रहे है कि अमरनाथ यात्रा में इतने लोगों को क्यों शरीक होना चाहिए। अलगाववादियों को यह समझ लेना चाहिए कि पूरा देश एक है और किसी को कहीं भी आने-जाने का अधिकार है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दिए जाने के मुद्दे पर अलगाववादियों द्वारा कश्मीर घाटी में जो प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे है, उसके पीछे पाकपरस्त ताकतों का हाथ है। अजीब विडंबना है कि जब सरकार हज यात्रा के लिए छूट देती है तो अमरनाथ यात्रियों को सुविधा देने पर बवाल क्यो? पूरे भारत में हज यात्रियों के लिए बने स्थाई केन्द्रों से प्रदूषण नहीं फैलता, परंतु अमरनाथ यात्रियों के लिए की जा रही व्यवस्था से प्रदूषण फैलने का आरोप लगाना निहायत बेवकूफी भरा है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के पक्ष में जमीन हस्तांतरण के मुद्दे पर अलगाववादियों ने जिस तरह का राष्ट्रविरोधी रवैया अपनाया है, यदि इसके विरूध्द तत्काल सख्त कदम नहीं उठाए गए तो तो इसके भयंकर परिणाम हो सकते है।

"साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार"

दुनिया भर के प्रमुख विचारकों ने भारतीय जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य, धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता को मनुष्य के उत्कर्ष के लिए सर्वोत्कृष्ट बताया है, लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहेंगे कि यहां की माटी पर मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं, जो पाश्चात्य विचारधारा का अनुगामी बनते हुए यहां की परंपरा और प्रतीकों का जमकर माखौल उड़ाने में अपने को धन्य समझते है। इस विचारधारा के अनुयायी 'कम्युनिस्ट' कहलाते है। विदेशी चंदे पर पलने वाले और कांग्रेस की जूठन पर अपनी विचारधारा को पोषित करने वाले 'कम्युनिस्टों' की कारस्तानी भारत के लिए चिंता का विषय है। हमारे राष्ट्रीय नायकों ने बहुत पहले कम्युनिस्टों की विचारधारा के प्रति चिंता प्रकट की थी और देशवासियों को सावधान किया था। आज उनकी बात सच साबित होती दिखाई दे रही है। सच में, माक्र्सवाद की सड़ांध से भारत प्रदूषित हो रहा है। आइए, इसे सदा के लिए भारत की माटी में दफन कर दें।

कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराधों की लम्बी दास्तां है-

• सोवियत संघ और चीन को अपना पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने की मानसिकता उन्हें कभी भारत को अपना न बना सकी।

• कम्युनिस्टों ने 1942 के 'भारत-छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ देते हुए देशवासियों के साथ विश्वासघात किया।

• 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन की तरफदारी की। वे शीघ्र ही चीनी कम्युनिस्टों के स्वागत के लिए कलकत्ता में लाल सलाम देने को आतुर हो गए। चीन को उन्होंने हमलावर घोषित न किया तथा इसे सीमा विवाद कहकर टालने का प्रयास किया। चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन का नारा लगाया।

• इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने विरोधियों को कुचलने के पूरे प्रयास किए तथा झूठे आरोप लगातार अनेक राष्ट्रभक्तों को जेल में डाल दिया। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई। डांगे ने आपातकाल का समर्थन किया तथा सोवियत संघ ने आपातकाल को 'अवसर तथा समय अनुकूल' बताया।

• भारत के विभाजन के लिए कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।

• कम्युनिस्टों ने सुभाषचन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता', जवाहर लाल नेहरू को 'साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता' तथा सरदार पटेल को 'फासिस्ट' कहकर गालियां दी।

ये कुछ बानगी भर है। आगे हम और विस्तार से बताएंगे।

भारतीय कम्युनिस्ट भारत में वर्ग-संघर्ष पैदा करने में विफल रहे, परंतु उन्होंने गांधीजी को एक वर्ग-विशेष का पक्षधर, अर्थात् पुजीपतियों का समर्थक बताने में एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया। उन्हें कभी छोटे बुर्जुआ के संकीर्ण विचारोंवाला, धनवान वर्ग के हित का संरक्षण करनेवाला व्यक्ति तथा जमींदार वर्ग का दर्शन देने वाला आदि अनेक गालियां दी। इतना ही नहीं, गांधीजी को 'क्रांति-विरोधी तथा ब्रिटीश उपनिवेशवाद का रक्षक' बतलाया। 1928 से 1956 तक सोवियत इन्साइक्लोपीडिया में उनका चित्र वीभत्स ढंग से रखता रहा। परंतु गांधीजी वर्ग-संषर्ष तथा अलगाव के इन कम्युनिस्ट हथकंडों से दुखी अवश्य हुए।

साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार-

महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947) को कहा-

'कम्युनिस्ट समझते है कि उनका सबसे बड़ा कत्तव्य, सबसे बड़ी सेवा- मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है। वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है। ये लोग एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा लगा गए थे।'
यह आम भारतीय की आवाज है यानी हमारी आवाज...