आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी।पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।
परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।
जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।
जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।
अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है।
एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण्ा अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं।
यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।
हितचिन्तक से साभार