कश्मीर घाटी एक बार फिर सुलग रही है। उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती या अन्य सेकुलरों के अनुसार इसका कारण है सेना की ज्यादती। उनकी राय है कि सेना को यदि स्थायी रूप से हटा दें, तो घाटी में स्थायी शांति हो जाएगी। मुख्यमंत्री तो बहुत समय से यह मांग कर रहे हैं; पर अब जब उनकी अपनी जान और सत्ता ही खतरे में पड़ गयी है, तो वे फिर से सेना, कर्फ्यू, वार्ता और राजनीतिक समाधान की भाषा बोल रहे हैं।
उमर का राजनीतिक समाधान का राग वही है, जो अलगाववादी और पाकिस्तान प्रेरित देशद्रोही नेता लम्बे समय से गाते आये हैं। यानि जो लोग 1947 या उसके बाद कभी भी पाकिस्तान चले गये, उन्हें सम्मान सहित वापस लाएं। उन्हें नागरिकता देकर उनकी सम्पत्ति वापस करें। जो घुसपैठिये, आतंकवादी और पत्थरबाज जेल में हैं, उन पर दया की जाए। युवकों को सरकारी नौकरियां दी जाएं.. आदि। एक बात जो ये नेता नहीं बोलते; पर इन सब मांगों में से स्वतः परिलक्षित होती है, वह यह कि बचे खुचे हिन्दुओं को भी घाटी से सदा के लिए निकाल दिया जाए।
कश्मीर समस्या वस्तुतः नेहरू के पाप और अपराधों का स्मारक है। दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो यह मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि की समस्या है। इसे समझने के लिए डा0 पीटर हैमंड द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘स्लेवरी, टेरेरिज्म एंड इस्लाम, दि हिस्टोरिकल रूट्स एंड कन्टैम्पेरेरी थ्रैट’ का अध्ययन बहुत उपयोगी है। इसके बारे में अंग्रेजी साप्ता0 उदय इंडिया (17.7.2010) ने बहुत रोचक विवरण प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने बताया है कि जनसंख्या वृद्धि से मुस्लिम मानसिकता कैसी बदलती है ?
लेखक के अनुसार जिस देश में मुस्लिम जनसंख्या दो प्रतिशत से कम होती है, वहां वे शांतिप्रिय नागरिक बन कर रहते हैं। अमरीका (0.7 प्रति.), आस्टेªलिया (1.5 प्रति.), कनाडा (1.9 प्रति.), चीन (1.8 प्रति.), इटली (1.5प्रति.), नोर्वे (1.8 प्रति.) ऐसे ही देश हैं। चीन के जिन प्रान्तों में मुसलमान उपद्रव करते हैं, वहां उनकी संख्या इस प्रतिशत से बहुत अधिक होने से वहां उनकी मनोवृत्ति बदल जाती है।
मुस्लिम जनसंख्या दो से पांच प्रतिशत के बीच होने पर स्वयं को अलग समूह मानते हुए वे अन्य अल्पसंख्यकों को धर्मान्तरित करने लगते हैं। इसके लिए वे जेल और सड़क के गुंडों को अपने दल में भर्ती करते हैं। निम्न देशों में यह काम जारी है: डेनमार्क (2 प्रति.), जर्मनी (3.7 प्रति.), ब्रिटेन (2.7 प्रति.), स्पेन (4 प्रति.) तथा थाइलैंड (4.6 प्रति.)।
पांच प्रतिशत से अधिक होने पर वे विशेषाधिकार मांगते हैं। जैसे हलाल मांस बनाने, उसे केवल मुसलमानों द्वारा ही पकाने और बेचने की अनुमति। वे अपनी सघन बस्तियों में शरीया नियमों के अनुसार स्वशासन की मांग भी करते हैं। निम्न देशों का परिदृश्य यही बताता है। फ्रांस (8 प्रति.), फिलीपीन्स (5 प्रति.), स्वीडन (5 प्रति.),स्विटजरलैंड (4.3 प्रति.), नीदरलैंड (5.5 प्रति.), ट्रिनीडाड एवं टबागो (5.8 प्रति.)।
मुस्लिम जनसंख्या 10 प्रतिशत के निकट होने पर वे बार-बार अनुशासनहीनता, जरा सी बात पर दंगा तथा अन्य लोगों और शासन को धमकी देने लगते हैं। गुयाना (10 प्रति.), भारत (13.4 प्रति.), इसराइल (16 प्रति.), केन्या (10 प्रति.), रूस (15 प्रति.) आदि में उनके पैगम्बर की फिल्म, कार्टून आदि के नाम पर हुए उपद्रव यही बताते हैं।
20 प्रतिशत और उससे अधिक जनसंख्या होने पर प्रायः दंगों और छुटपुट हत्याओं का दौर चलने लगता है। जेहाद, आतंकवादी गिरोहों का गठन, अन्य धर्मस्थलों का विध्वंस जैसी गतिविधियां क्रमशः बढ़ने लगती हैं। इथोपिया (32.8 प्रति.) का उदाहरण ऐसा ही है। 40 प्रतिशत के बाद तो खुले हमले और नरसंहार प्रारम्भ हो जाता है। बोस्निया (40 प्रति.), चाड (53.1 प्रति.) तथा लेबनान (59.7 प्रति.) में यही हो रहा है।
60 प्रतिशत जनसंख्या होने पर इस्लामिक कानून शरीया को शस्त्र बनाकर अन्य धर्मावलम्बियों की हत्या आम बात हो जाती है। उन पर जजिया जैसे कर थोप दिये जाते हैं। यहां अल्बानिया (70 प्रति.), मलयेशिया (60.4प्रति.), कतर (77.5 प्रति.) तथा सूडान (70 प्रति.) का नाम उल्लेखनीय है।
80 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम जनसंख्या अन्य लोगों के लिए कहर बन जाती है। अब वे मुसलमानों की दया पर ही जीवित रह सकते हैं। शासन हाथ में होने से शासकीय शह पर जेहादी हमले हर दिन की बात हो जाती है। बांग्लादेश (83 प्रति.), इजिप्ट (90 प्रति.), गजा (98.7 प्रति.), इंडोनेशिया (86.1 प्रति.), ईरान (98 प्रति.), इराक (97 प्रति.), जोर्डन (92 प्रति.), मोरक्को (98.7 प्रति.), पाकिस्तान (97 प्रति.), फिलीस्तीन (99 प्रति.), सीरिया (90प्रति.), ताजिकिस्तान (90 प्रति.), तुर्की (99.8 प्रति.) तथा संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रति.) इसके उदाहरण हैं।
100 प्रतिशत जनसंख्या का अर्थ है दारुल इस्लाम की स्थापना। अफगानिस्तान, सऊदी अरब, सोमालिया, यमन आदि में मुस्लिम शासन होने के कारण उनका कानून चलता है। मदरसों में कुरान की ही शिक्षा दी जाती है। अन्य लोग यदि नौकरी आदि किसी कारण से वहां रहते भी हैं, तो उन्हें इस्लामी कानून ही मानना पड़ता है। इसके उल्लंघन पर उन्हें मृत्युदंड दिया जाता है।
इस विश्लेषण के बाद डा. पीटर हैमंड कहते हैं कि शत-प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या होने के बाद भी वहां शांति नहीं होती। क्योंकि अब वहां कट्टर और उदार मुसलमानों में खूनी संघर्ष छिड़ जाता है। भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि ही आपस में लड़ने लगते हैं। कुल मिलाकर मुस्लिम विश्व की यही व्यथा कथा है।
अब इस कसौटी पर कश्मीर घाटी को रखकर देखें, तो तुरन्त ध्यान में आ जाएगा कि वहां की मूल समस्या क्या है ? पूरे भारत में मुस्लिम जनसंख्या भले ही 13.4 प्रतिशत हो; पर घाटी में तो 90 प्रतिशत मुसलमान ही हैं। हिन्दू बहुल जम्मू की अपेक्षा मुस्लिम बहुल कश्मीर से अधिक विधायक चुने जाते हैं, जो सब मुसलमान होते हैं। वहां मुख्यमंत्री सदा मुसलमान ही होता है। शासन-प्रशासन भी लगभग उनके हाथ में होने से जम्मू और लद्दाख की सदा उपेक्षा ही होती है। 1947 से यही कहानी चल रही है।
इस कहानी के मूल में नेहरू की मूर्खता, पाप और अपराध हैं। लेडी माउंटबेटन और शेख अब्दुल्ला से उनके संबंध अब सार्वजनिक हो चुके हैं। यदि कश्मीर का विलय भी नेहरू की बजाय सरदार पटेल के हाथ में होता, तो हैदराबाद और जूनागढ़ की तरह यहां भी समस्या हल हो चुकी होती; पर दुर्भाग्यवश इतिहास की घड़ी की सुइयों को लौटाया नहीं जा सकता। हां, उससे शिक्षा लेकर आगे का मार्ग प्रशस्त अवश्य किया जा सकता है।
दुनिया के कई देशों में ऐसी समस्याओं ने समय-समय पर सिर उठाया है। चीन, जापान, रूस, बर्मा, बुलगारिया,कम्पूचिया, स्पेन आदि ने इसे जैसे हल किया, वैसे ही न केवल कश्मीर वरन पूरे देश की मुस्लिम समस्या 1947में हल हो सकती थी। 1971 में बांग्लादेश विजय के बाद भी ऐसा माहौल बना था; पर हमारे सेक्यूलर शासकों ने वे सुअवसर गंवा दिये।
इस समस्या के निदान के दो पक्ष हैं। पहला तो अलगाववादियों का सख्ती से दमन। वह राजनेता हो या मजहबी नेता, वह युवा हो या वृद्ध, वह स्त्री हो या पुरुष; वह मूर्ख हो या बुद्धिजीवी; वह मुसलमान हो या हिन्दू; पर देश के विरोध में बोलने वाले को सदा के लिए जहन्नुम भेजने का साहस शासन को दिखाना होगा। ऐसे सौ-दो सौ लोगों को गोली मार कर उनकी लाश यदि चौराहे पर लटका दें, तो आधी समस्या एक सप्ताह में हल हो जाएगी। हम अब्राहम लिंकन को याद करें, जिन्होंने गृहयुद्ध स्वीकार किया; पर विभाजन नहीं। इस गृहयुद्ध में लाखों लोग मारे गये; पर देश बच गया। इसीलिए वे अमरीका में राष्ट्रपिता कहे जाते हैं।
समाधान का दूसरा पहलू है कश्मीर घाटी के जनसंख्या चरित्र को बदलना। यह प्रयोग भी दुनिया में कई देशों ने किया है। तिब्बत पर स्थायी कब्जे के लिए चीन यही कर रहा है। चीन के अन्य भागों से लाकर इतने चीनी वहां बसा दिये गये हैं कि तिब्बती अल्पसंख्यक हो गये हैं। ऐसे ही हमें भी पूरे भारत के हिन्दुओं को, नाममात्र के मूल्य पर खेतीहर जमीनें देकर घाटी में बसा देना चाहिए। पूर्व सैनिकों के साथ ही ऐसे लोगों को वहां भेजा जाए,जो स्वभाव से जुझारू और शस्त्रप्रेमी होते हैं। सिख, जाट, गूजर आदि ऐसी ही कौमें हैं। ऐसे दस लाख परिवार यदि घाटी में पहुंच जाएं, तो वे स्वयं ही अलगाववादियों से निबट लेंगे।
कुछ लोग इसके लिए अनुच्छेद 370 को बाधा बताते हैं; पर यह ध्यान रहे कि दवा रोग मिटाने के लिए होती है। यदि उससे नया रोग पैदा होने लगे, तो उसे फेंकना ही उचित है। यदि अनुच्छेद 370 घाटी को देश से अलग करने में सहायक हो रहा है, तो उसे वैध-अवैध किसी भी तरह समाप्त करना ही होगा। मुस्लिम वोटों के दलाल चाहे जो कहें; पर यदि कश्मीर ही भारत में नहीं रहा, तो इस आत्माहीन अनुच्छेद का क्या हम अचार डालेंगे ?
कश्मीर भारत का मुकुटमणि है। डा0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बलिदान देकर ‘दो विधान, दो प्रधान और दो निशान’के कलंक को मिटाया था। मेजर सोमनाथ शर्मा जैसे हजारों वीरों ने प्राण देकर पाकिस्तान से इसकी रक्षा की है। क्या उनका बलिदान हम व्यर्थ जाने देंगे ? अब वार्ता के नाटक का नहीं, निर्णायक कार्यवाही का समय है। इसमें जितना समय हमारे अदूरदर्शी राजनेता गंवा रहे हैं, कश्मीर उतना हाथ से निकल रहा है।
कहते हैं कि जो इतिहास से शिक्षा नहीं लेते, उनके लिए इतिहास स्वयं को दोहराता है। सारा देश पूछ रहा है कि क्या एक बार फिर हम इसी नियति की ओर बढ़ रहे हैं ?
साभार : विजय कुमार