Monday, December 20, 2010
छोरा बदनाम हुआ .....
Monday, November 1, 2010
कांग्रेस का हिंदुओं के खिलाफ षड्यंत्र
पीढिय़ों के दर्द की यह गलत दवा न दो
आपसी दुराव के सभी बयान रोक दो
देश बांटने की हर प्रवृत्ति को लगाम दो
द्वेषपूर्ण भाषणों की वृत्ति को विराम दो
यह प्रवृत्ति देश में नया विवाद लाएगी
और लग गई ये आग फिर न बुझने पाएगी।’’
जीवन में कभी-कभी अतीत में गहराई से झांकना बड़ा ही अच्छा लगता है और सुखद भी। भारतवर्ष में जिस तंत्र में हम रह रहे हैं और हम जिसे प्रजातंत्र कहते हैं वह आजादी के 6 दशक बाद कैसा सिद्ध हो रहा, इस पर मैं टिप्पणी करना चाहता हूं। मुझे लगता है कि हिन्दुस्तान में हिन्दुत्व की बात करना या हिन्दू होना गुनाह हो गया है। हिन्दुओं के खिलाफ एक सुनियोजित षड्यंत्र रचा जा रहा है। धर्मनिरपेक्ष नामक शब्द भारत के माथे पर कोढ़ बन कर उभरा है। यह आज भी इस राष्ट्र के लिए कलंक है। धर्म चेतना का विज्ञान है अत: यह हमेशा एक ही रहता है।
हिन्दू समाज को पहले पश्चिम के विद्वानों ने निशाना बनाया। धर्मनिरपेक्षता को हथियार बनाकर हिन्दुत्व के मान बिन्दुओं पर आघात पहुंचाया गया। महात्मा गांधी के जमाने से ही कांग्रेस तुष्टिकरण की नीतियों पर चल पड़ी थी, जो आज तक चल रही है। कम्युनिस्ट और अन्य दलों ने भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमान, ईसाइयों को विशेषाधिकार दिए जाने की मांग शुरू कर दी। वोटों के लालच में इस शब्द का खुला दुरुपयोग किया जाने लगा। जब भी कभी हिन्दू हितों की बात की जाती है तो उन्हें साम्प्रदायिक करार दिया जाता है और धर्मनिरपेक्षता विरोधी बताकर खिलाफत की जाती है। इस तरह धर्मनिरपेक्ष शब्द को हिन्दू विरोध का पर्यायवाची बना डाला गया है। कांग्रेस आज इसका उत्तर दे सकती है कि क्या उसने ही मुस्लिमों के खिलाफत आंदोलन का समर्थन कर कट्टरवाद और अलगाववाद को बढ़ावा नहीं दिया था? समस्याओं की तथ्यपरक समीक्षा का समुचित समाधान निकालने के विपरीत गांधी और नेहरू कल्पना लोक में विचरण करते रहे। वे हिन्दुओं को समझाते रहे कि हिन्दू-मुसलमान में कोई भेदभाव नहीं हैं। दोनों ही भारतीय राष्ट्र का अंग हैं, गांधी जी कहते रहे ‘‘हिन्दुस्तान का बंटवारा मेरी लाश पर ही हो सकता है।’’ नेहरू जी कहते रहे ‘‘पाकिस्तान एक वाहियात सपना है।’’
''राजेन्द्र बाबू ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया डिवाइडेड’ में लिखा ‘‘पाकिस्तान असम्भव है’’ यह मानने वाले नेताओं ने ही बंटवारा स्वीकार किया। शांति और अहिंसा का घूंट पिलाकर हिन्दुओं को निहत्था और कायर बनाया। उसके बाद भारत का गवर्नर जनरल माउंट बेटन को ही रहने दिया किन्तु पाक का गवर्नर जिन्ना को स्वीकार कर लिया। परिणामस्वरूप पाकिस्तानी पुलिस, सेना और दंगाइयों के संयुक्त अभियान में लाखों हिन्दू कत्ल कर दिए गए। हिन्दुओं की अपार सम्पत्ति छीन ली गई। असंख्य महिलाओं का बलात्कार और अपहरण हुआ तथा वहीं रह रहे सभी हिन्दुओं का जबरदस्ती धर्मांतरण हुआ।''
आजादी के बाद भी कांग्रेस और अन्य दलों ने सत्ता के लिए हमेशा हिन्दुवादी संगठनों को निशाना बनाया। इसे देश का दुर्भाग्य कहें या पंडित नेहरू का सौभाग्य कि उन्होंने भी उस समय तेजी से शक्तिशाली हो रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कुचलने का प्रयास किया। महात्मा गांधी की हत्या का घृणित आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। दिन-रात दुष्प्रचार कर जनता के मन में संघ के प्रति घृणा भर दी और इस तरह अपनी पार्टी और वंश का राजनीतिक मार्ग प्रशस्त कर दिया। महात्मा गांधी की हत्या में संघ निर्दोष पाया गया और दो वर्ष बाद उससे प्रतिबंध हटा लिया गया। कई बार संघ पर प्रतिबंध लगाया गया और हटाया गया। कांग्रेस आज भी पुराना खेल खेल रही है और तुष्टीकरण की नीतियों के चलते हिन्दू आतंकवाद का हौवा खड़ा कर रही है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने पहले भगवा आतंकवाद शब्द का प्रयोग किया। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन सिमी की तुलना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कर दी और फिर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने यह अनर्गल आरोप लगा दिया कि संघ की पाक की खुफिया एजैंसी आईएसआई से सांठगांठ है। पहले मालेगांव बम धमाके में साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित की गिरफ्तारी के बाद संघ को निशाना बनाया गया जबकि साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के ‘अभिनव भारत’ का संघ से कोई संबंध ही नहीं है। अब राजस्थान पुलिस ने अजमेर बम धमाके में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार का नाम चार्जशीट में शामिल कर फिर षड्यंत्र का संकेत दे दिया है। इस षड्यंत्र के पीछे कांग्रेस की संकीर्ण राजनीतिक सोच नजर आ रही है। अभी इन्द्रेश कुमार के खिलाफ पुलिस के पास कोई पुख्ता सबूत नहीं है। जांच में क्या निकलता है, यह कहा नहीं जा सकता लेकिन क्या राहुल गांधी के वक्तव्य को सच साबित करने के लिए इन्द्रेश कुमार को निशाना तो नहीं बनाया गया? बिहार चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस मुस्लिम वोटों की खातिर किसी भी हद तक जा सकती है और जांच एजैंसियों का दुरुपयोग कर सकती है। यह उसका पुराना खेल भी रहा है। देशवासियो जानो कांग्रेस की असलियत को। सरकार की नाक के नीचे हुर्रियत नेता गिलानी और लेखिका अरुंधति राय कश्मीर की आजादी का राग अलापते हैं और उनके खिलाफ देशद्रोह का केस दर्ज करने से इन्कार कर दिया जाता है। जिहादी आतंकवाद और नक्सली हिंसा का दायरा बढ़ रहा है। कट्टरपंथी पाक का झंडा लहरा रहे हैं लेकिन कांग्रेस हिन्दू आतंक का ढिंढोरा पीट रही है। आर्य पुत्रो ऐसे षड्यंत्रों से सावधान रहो। खादीधारी मेमने बड़े खतरनाक हैं, उन्होंने आग लगाई तो हिन्दू जनमानस को संगठित होना ही होगा और हिन्दू राजनीति को स्वर देना ही होगा।
1 नवम्बर, 2010
Saturday, October 30, 2010
ब्लू लाइन दिल्ली की असली लाईफ लाइन
किलर लाईन, नीला प्रेत, मौत की लाईन और न जाने कितने ही ऐसे नामो से ब्लू लाईन को मीडिया ने प्रचारित कर लोगों के मन में ऐसा भय पैदा किया कि वे भी उसे इन्हीं नामो से सम्बोधित करने लगे और इस धुर्त मीडिया की तोता रटन को ही सच मान कर इन बसो को बंद करवाने के लिए उतावले होने लगे। पर ये बेवकूफ लोग इनको क्या कहें ना तो इनको अपने अच्छे का पता है और न अपने बूरे का केवल पता है तो सिर्फ इतना की मीडिया ने जो कहा वो ही सच है। तो मान लो कि ये बसे केवल जान लेती हैं। सामने आते ही किसी को भी रौंद देती हैं। ये तो हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। अगर ये इसी प्रकार चलती रही तो हमको भी मार देंगी। तो मिला दी इस धुर्त मीडिया की तान में तान और लगवा दिया इन बसों में ताला।
आखिर ये माजरा क्या है। आइए आपको बताते हैं, इन ब्लू लाईन बसों को 1980 के आरम्भ में दिल्ली की सड़को पर उतारा गया था। दिल्ली में उस दौरान डीटीसी बसों की हड़ताल के परिणामस्वरूप इन बसो को चलाया गया था जिसके कारण दिल्ली की गति थम गई थी। उस समय इनका रंग लाल था। इन बसो को चलाने से दिल्ली के सार्वजनिक परिवहन में बहुत सुधार हुआ। और वर्तमान समय में ये दिल्ली की असली लाईफ लाईन बन चुकी हैं। और खासकर उस आम आदमी की सबसे ज्यादा जरूरत जिसके नाम पर हर पांच साल बाद ये राजनीति की रोटी सेकने वाले वोट मांगने उसकी चौखट पर जाते हैं और चुनाव समाप्त होने के बाद उस आम आदमी को भूल जाते हैं। जिनके पास दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता।
आम आदमी मोटी-मोटी रकम देकर आटो या टैक्सी में सफर नहीं कर सकता। जिनकी जान का वास्ता देकर इन बसों को बंद किया गया है। आज वह आम आदमी ही सबसे ज्यादा इन बसों के सड़कों पर न उतरने से परेशान हो रहा है। घंटों बस स्टॉप पर खड़े होने के बाद भी इन डीटीसी बसों का कोई माई-बाप नहीं है। कब ये बसे आती हैं और कब नहीं। आती भी हैं तो उनकी हालत देखकर इस आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं। कि आखिर इसमें चढे़ की ना चढ़े परन्तु पूरे दिन का थका मांदा वो हिम्मत करके सांस रोक कर अपनी जिंदगी को हाथ में रखकर उस पर चढ़ जाता है। उसके बाद भगवान ही उसका मालिक होता है।
जिस मैट्रो का नाम और भरोसे को लेकर इन बसो को सड़कों से हटाया गया है। आज उसकी हालत खुद खस्ता हो चुकी है। किस स्टेशन पर कितनी देर रूकेगी अथवा बीच रास्ते में कभी भी किसी भी जगह रूक जाती है। जिसके चलते हजारो लोगों की जान पर आ बनती हैं। अव्यवस्था का आलम यह है कि किसी-किसी स्टेशन पर तो सूचना देने के लिए कोई अधिकारी भी नहीं होता। मैट्रो वाले केवल तकनीकी खराबी बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। इस अव्यवस्था का नजारा कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान भी लोगों को खूब देखने को मिला। जब जहां तहां कहीं भी ये मैट्रो बीच टनल में रूक गई। दो ढाई मिनट में मैट्रों की फ्रिक्वंसी देने का वादा करने करने वाली ये डीएमआरसी आज कई स्टेशनों पर 15 से 20 मिनट में भी सेवा उपलब्ध नहीं करवा पा रही है। जिसके चलते स्टेशनों पर भारी भीड़ हो जाती है जिसको कंट्रोल करने के लिए उसके पास कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। जिसके चलते लोग धक्का-मुक्की पर उतारू हो जाते हैं। और ये धक्का-मुक्की कई बार लड़ाई झगड़ों में भी बदल जाती है। गाली-गलोच होना तो आम बात हो गई है। और इन सबमें सबसे ज्यादा परेशानी महिलाओं बच्चों और विकलांग व्यक्तियों को होती है जो कि इन सबसे टक्कर नहीं ले पाते। मैट्रो स्टेशनों पर एकत्रित बेतहाशा भीड़ को देखकर डीएमआरसी वालों के भी पसीने छूट जाते हैं। और कितनी ही बार उनको ये अनाउंसमेंट करनी पड़ती है कि यदि यात्रियों को अधिक जल्दी है तो वे किसी दूसरे विकल्प का प्रयोग करें। इतना महंगा किराया देने के बाद भी आम लोगों को केवल असुविधा ही मिल रही है।
और रही बात इस भोपू मीडिया की तो उसके लिए तो इसमें भी अपनी टीआरपी बढ़ाने की होड़ लगी रहती है। ब्लू लाईन को निपटाने के प्रयास में सफल होने के बाद अब मैट्रो को भी गाली देने से पीछे नहीं हटते। फर्क सिर्फ इतना है कि अब उसकी हैडिंग होती है एक बार फिर परेशानी का सबब बनी मैट्रो, फिर थमी दिल्ली की लाईफ लाईन आदि। लेकिन इसमें गलती इस मीडिया की नहीं है। उनके लिए तो केवल यह व्यवसाय है। इनको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की किसकी लाईफ लाईन रूकी या चली।
मुझे तो इसमें भी इस सरकार की किसी बड़ी कम्पनी से सांठगांठ की बू आ रही है। इतने लोगों के पेट पर लात मारने के पीछे किसी बड़ी कम्पनी के साथ कोई अंदरूनी गठबंधन हो सकता है। ये तो आने वाले समय में ही साफ हो सकेगा। क्योंकि ये सरकार एक जगह जहां धीरे-धीरे करके सभी सरकारी महकमों का नीजीकरण करने पर उतारू है वहीं दूसरी तरफ लोगों की जिंदगी से उसको इतनी हमदर्दी कहां से हो गई कि एक ही झटके में सारी व्यवस्था अपने हाथों में ले ली है। इस सरकार की ईमानदारी से हम अच्छी तरह से वाकिफ हैं। किस तरह पहले बिजली का नीजिकरण करके आज आम जनता को रिलायंस कम्पनी के साथ मिलकर जिस तरह से लूटा जा रहा है। उसके बाद जल बोर्ड का भी निजीकरण करने की तैयारी पूरी हो चुकी है। अब डीटीसी की आड़ लेकर किसी कम्पनी के साथ करार किया है। ये जानने की बात है। वो भी आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा।
इसके पूर्व हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि जब मामला पहले से ही कोर्ट में है तो बिना कोर्ट को संज्ञान में रखे हुये नोटिफिकेशन क्यों जारी किया गया। हाईकोर्ट ने शिला सरकार को लताड़ लगाते हुए कहा कि जब तक यातायात के पर्याप्त इंतजाम नहीं किए जाते तब तक साउथ दिल्ली के सभी रूटों पर ब्लूलाइन बसें बहाल की जाए। दूसरी तरफ, ब्लूलाइन ऑपरेटरों का कहना है कि सरकार ने उन्हें कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान हटने के लिए कहा, तो वे हट गए लेकिन सरकार को भी उनके मामले पर सहानुभूतिपूर्वक सोचना चाहिए क्योंकि बसें हटने से हजारों लोग बेरोजगार हो जाएंगे।
Friday, October 15, 2010
क्या शाही इमाम के लिए यही धर्मनिरपेक्षता है ?
एक पत्रकार को। पत्रकारों के ही बीच में। एक पत्रकार सम्मेलन में इस तरह पीटा गया जैसे किसी राह चलते छुटभैय्ये को दुत्कार दिया गया हो। क्या अब पत्रकारों की यही गैरत रह गई है कि कोई भी राह चलता इनको या इनकी बिरादरी वालों को दुत्कार दे या इन्हीं के सामने उसको कुत्तों की तरह पीट दे। क्या इन्हें इसमें भी धर्मनिरपेक्षता नजर आती है। केवल राम का नाम लेने मात्र से कोई मौलाना इस तरह आपे से बाहर हो गया कि उसने अपनी मर्यादा को ताक पर रखकर गली के गुण्डे मवाली की तरह एक पत्रकार को सभी पत्रकारों के बीच में अपने साथ लाए गए गुण्डों के साथ मिलकर पीट दिया। सारा घटनाक्रम निम्न प्रकार है:-
जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना सैयद अहमद बुखारी ने एक पत्रकार को पीटा व जान से मारने की धमकी दी। जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी अपने कुछ समर्थकों के साथ लखनऊ के गोमती होटल में एक प्रेस कांफ्रेंस को सम्बोधित करने आये थें। कांफ्रेंस के दौरान उर्दू अखबार ‘दास्ताने-ए-अवध’ के सम्पादक अब्दुल बहीद चिश्ती द्वारा पूछे गये एक प्रश्न पर बुखारी व उनके समर्थक भड़क गये।
पत्रकार द्वारा पूछा गया सवाल
पत्रकार ने बुखारी से प्रश्न पूछा कि अयोध्या की विवादित जमीन के सन 1528 के खसरे में राजा दशरथ का नाम आता है चूंकि भगवान राम राजा दशरथ के वारिस हैं इस नाते क्या मुसलमानों को उक्त जमीन हिन्दुओं को नहीं दे देनी चाहिए?
संपादक पर झपटे बुखारी
प्रश्न सुनते ही बुखारी इस कदर भड़क गये कि किसी की परवाह किये बिना चिश्ती को कांग्रेस का एजेंट व गद्दार तक कह डाला। इसके बाद धमकी देते हुए बोले की ‘चुपचाप बैठ जा, बैठ जा छुपकर, नहीं तो वहीं आकर गर्दन नाप दूंगा।
बुखारी ने भड़कते हुए उन्हें गालियां दी और अपने साथियों को उन्हें मारने के लिए कहा। इसके पश्चात पुलिस के रोकने के बावजूद भी बुखारी समेत उनके साथी धक्का देते हुए संपादक को एक किनारे ले गये और उस पर थप्पड़, घुंसे मारने लगे।
लेकिन फिर भी बुखारी का गुस्सा शांत नहीं हुआ उन्होंने अपने साथियों से कहा ‘मारो निकाल बाहर करो इसको। समझता है, हमने चूड़ियां पहनी हुई हैं, जब पत्रकारों ने इस बाबात बुखारी से एक पत्रकार को इस तरह मारने का कारण पूछा तो बुखारी ने बहुत ही अभद्र भाषा में अपशब्द कहते हुए पत्रकारों से कहा कि हम मारेंगे भी और निकालेंगे भी, हम एजेंट और मुसलमानों के गद्दारों को बर्दाश्त नहीं कर सकते।
Wednesday, September 1, 2010
पुलिस की अधूरी जानकारी के विरूद्ध पत्रकार राजीव कुमार ने सीआईसी की शरण ली
Saturday, August 7, 2010
कश्मीर: समस्या और समाधान
कश्मीर घाटी एक बार फिर सुलग रही है। उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती या अन्य सेकुलरों के अनुसार इसका कारण है सेना की ज्यादती। उनकी राय है कि सेना को यदि स्थायी रूप से हटा दें, तो घाटी में स्थायी शांति हो जाएगी। मुख्यमंत्री तो बहुत समय से यह मांग कर रहे हैं; पर अब जब उनकी अपनी जान और सत्ता ही खतरे में पड़ गयी है, तो वे फिर से सेना, कर्फ्यू, वार्ता और राजनीतिक समाधान की भाषा बोल रहे हैं।
उमर का राजनीतिक समाधान का राग वही है, जो अलगाववादी और पाकिस्तान प्रेरित देशद्रोही नेता लम्बे समय से गाते आये हैं। यानि जो लोग 1947 या उसके बाद कभी भी पाकिस्तान चले गये, उन्हें सम्मान सहित वापस लाएं। उन्हें नागरिकता देकर उनकी सम्पत्ति वापस करें। जो घुसपैठिये, आतंकवादी और पत्थरबाज जेल में हैं, उन पर दया की जाए। युवकों को सरकारी नौकरियां दी जाएं.. आदि। एक बात जो ये नेता नहीं बोलते; पर इन सब मांगों में से स्वतः परिलक्षित होती है, वह यह कि बचे खुचे हिन्दुओं को भी घाटी से सदा के लिए निकाल दिया जाए।
कश्मीर समस्या वस्तुतः नेहरू के पाप और अपराधों का स्मारक है। दूसरे दृष्टिकोण से देखें, तो यह मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि की समस्या है। इसे समझने के लिए डा0 पीटर हैमंड द्वारा लिखित एक पुस्तक ‘स्लेवरी, टेरेरिज्म एंड इस्लाम, दि हिस्टोरिकल रूट्स एंड कन्टैम्पेरेरी थ्रैट’ का अध्ययन बहुत उपयोगी है। इसके बारे में अंग्रेजी साप्ता0 उदय इंडिया (17.7.2010) ने बहुत रोचक विवरण प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने बताया है कि जनसंख्या वृद्धि से मुस्लिम मानसिकता कैसी बदलती है ?
लेखक के अनुसार जिस देश में मुस्लिम जनसंख्या दो प्रतिशत से कम होती है, वहां वे शांतिप्रिय नागरिक बन कर रहते हैं। अमरीका (0.7 प्रति.), आस्टेªलिया (1.5 प्रति.), कनाडा (1.9 प्रति.), चीन (1.8 प्रति.), इटली (1.5प्रति.), नोर्वे (1.8 प्रति.) ऐसे ही देश हैं। चीन के जिन प्रान्तों में मुसलमान उपद्रव करते हैं, वहां उनकी संख्या इस प्रतिशत से बहुत अधिक होने से वहां उनकी मनोवृत्ति बदल जाती है।
मुस्लिम जनसंख्या दो से पांच प्रतिशत के बीच होने पर स्वयं को अलग समूह मानते हुए वे अन्य अल्पसंख्यकों को धर्मान्तरित करने लगते हैं। इसके लिए वे जेल और सड़क के गुंडों को अपने दल में भर्ती करते हैं। निम्न देशों में यह काम जारी है: डेनमार्क (2 प्रति.), जर्मनी (3.7 प्रति.), ब्रिटेन (2.7 प्रति.), स्पेन (4 प्रति.) तथा थाइलैंड (4.6 प्रति.)।
पांच प्रतिशत से अधिक होने पर वे विशेषाधिकार मांगते हैं। जैसे हलाल मांस बनाने, उसे केवल मुसलमानों द्वारा ही पकाने और बेचने की अनुमति। वे अपनी सघन बस्तियों में शरीया नियमों के अनुसार स्वशासन की मांग भी करते हैं। निम्न देशों का परिदृश्य यही बताता है। फ्रांस (8 प्रति.), फिलीपीन्स (5 प्रति.), स्वीडन (5 प्रति.),स्विटजरलैंड (4.3 प्रति.), नीदरलैंड (5.5 प्रति.), ट्रिनीडाड एवं टबागो (5.8 प्रति.)।
मुस्लिम जनसंख्या 10 प्रतिशत के निकट होने पर वे बार-बार अनुशासनहीनता, जरा सी बात पर दंगा तथा अन्य लोगों और शासन को धमकी देने लगते हैं। गुयाना (10 प्रति.), भारत (13.4 प्रति.), इसराइल (16 प्रति.), केन्या (10 प्रति.), रूस (15 प्रति.) आदि में उनके पैगम्बर की फिल्म, कार्टून आदि के नाम पर हुए उपद्रव यही बताते हैं।
20 प्रतिशत और उससे अधिक जनसंख्या होने पर प्रायः दंगों और छुटपुट हत्याओं का दौर चलने लगता है। जेहाद, आतंकवादी गिरोहों का गठन, अन्य धर्मस्थलों का विध्वंस जैसी गतिविधियां क्रमशः बढ़ने लगती हैं। इथोपिया (32.8 प्रति.) का उदाहरण ऐसा ही है। 40 प्रतिशत के बाद तो खुले हमले और नरसंहार प्रारम्भ हो जाता है। बोस्निया (40 प्रति.), चाड (53.1 प्रति.) तथा लेबनान (59.7 प्रति.) में यही हो रहा है।
60 प्रतिशत जनसंख्या होने पर इस्लामिक कानून शरीया को शस्त्र बनाकर अन्य धर्मावलम्बियों की हत्या आम बात हो जाती है। उन पर जजिया जैसे कर थोप दिये जाते हैं। यहां अल्बानिया (70 प्रति.), मलयेशिया (60.4प्रति.), कतर (77.5 प्रति.) तथा सूडान (70 प्रति.) का नाम उल्लेखनीय है।
80 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम जनसंख्या अन्य लोगों के लिए कहर बन जाती है। अब वे मुसलमानों की दया पर ही जीवित रह सकते हैं। शासन हाथ में होने से शासकीय शह पर जेहादी हमले हर दिन की बात हो जाती है। बांग्लादेश (83 प्रति.), इजिप्ट (90 प्रति.), गजा (98.7 प्रति.), इंडोनेशिया (86.1 प्रति.), ईरान (98 प्रति.), इराक (97 प्रति.), जोर्डन (92 प्रति.), मोरक्को (98.7 प्रति.), पाकिस्तान (97 प्रति.), फिलीस्तीन (99 प्रति.), सीरिया (90प्रति.), ताजिकिस्तान (90 प्रति.), तुर्की (99.8 प्रति.) तथा संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रति.) इसके उदाहरण हैं।
100 प्रतिशत जनसंख्या का अर्थ है दारुल इस्लाम की स्थापना। अफगानिस्तान, सऊदी अरब, सोमालिया, यमन आदि में मुस्लिम शासन होने के कारण उनका कानून चलता है। मदरसों में कुरान की ही शिक्षा दी जाती है। अन्य लोग यदि नौकरी आदि किसी कारण से वहां रहते भी हैं, तो उन्हें इस्लामी कानून ही मानना पड़ता है। इसके उल्लंघन पर उन्हें मृत्युदंड दिया जाता है।
इस विश्लेषण के बाद डा. पीटर हैमंड कहते हैं कि शत-प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या होने के बाद भी वहां शांति नहीं होती। क्योंकि अब वहां कट्टर और उदार मुसलमानों में खूनी संघर्ष छिड़ जाता है। भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि ही आपस में लड़ने लगते हैं। कुल मिलाकर मुस्लिम विश्व की यही व्यथा कथा है।
अब इस कसौटी पर कश्मीर घाटी को रखकर देखें, तो तुरन्त ध्यान में आ जाएगा कि वहां की मूल समस्या क्या है ? पूरे भारत में मुस्लिम जनसंख्या भले ही 13.4 प्रतिशत हो; पर घाटी में तो 90 प्रतिशत मुसलमान ही हैं। हिन्दू बहुल जम्मू की अपेक्षा मुस्लिम बहुल कश्मीर से अधिक विधायक चुने जाते हैं, जो सब मुसलमान होते हैं। वहां मुख्यमंत्री सदा मुसलमान ही होता है। शासन-प्रशासन भी लगभग उनके हाथ में होने से जम्मू और लद्दाख की सदा उपेक्षा ही होती है। 1947 से यही कहानी चल रही है।
इस कहानी के मूल में नेहरू की मूर्खता, पाप और अपराध हैं। लेडी माउंटबेटन और शेख अब्दुल्ला से उनके संबंध अब सार्वजनिक हो चुके हैं। यदि कश्मीर का विलय भी नेहरू की बजाय सरदार पटेल के हाथ में होता, तो हैदराबाद और जूनागढ़ की तरह यहां भी समस्या हल हो चुकी होती; पर दुर्भाग्यवश इतिहास की घड़ी की सुइयों को लौटाया नहीं जा सकता। हां, उससे शिक्षा लेकर आगे का मार्ग प्रशस्त अवश्य किया जा सकता है।
दुनिया के कई देशों में ऐसी समस्याओं ने समय-समय पर सिर उठाया है। चीन, जापान, रूस, बर्मा, बुलगारिया,कम्पूचिया, स्पेन आदि ने इसे जैसे हल किया, वैसे ही न केवल कश्मीर वरन पूरे देश की मुस्लिम समस्या 1947में हल हो सकती थी। 1971 में बांग्लादेश विजय के बाद भी ऐसा माहौल बना था; पर हमारे सेक्यूलर शासकों ने वे सुअवसर गंवा दिये।
इस समस्या के निदान के दो पक्ष हैं। पहला तो अलगाववादियों का सख्ती से दमन। वह राजनेता हो या मजहबी नेता, वह युवा हो या वृद्ध, वह स्त्री हो या पुरुष; वह मूर्ख हो या बुद्धिजीवी; वह मुसलमान हो या हिन्दू; पर देश के विरोध में बोलने वाले को सदा के लिए जहन्नुम भेजने का साहस शासन को दिखाना होगा। ऐसे सौ-दो सौ लोगों को गोली मार कर उनकी लाश यदि चौराहे पर लटका दें, तो आधी समस्या एक सप्ताह में हल हो जाएगी। हम अब्राहम लिंकन को याद करें, जिन्होंने गृहयुद्ध स्वीकार किया; पर विभाजन नहीं। इस गृहयुद्ध में लाखों लोग मारे गये; पर देश बच गया। इसीलिए वे अमरीका में राष्ट्रपिता कहे जाते हैं।
समाधान का दूसरा पहलू है कश्मीर घाटी के जनसंख्या चरित्र को बदलना। यह प्रयोग भी दुनिया में कई देशों ने किया है। तिब्बत पर स्थायी कब्जे के लिए चीन यही कर रहा है। चीन के अन्य भागों से लाकर इतने चीनी वहां बसा दिये गये हैं कि तिब्बती अल्पसंख्यक हो गये हैं। ऐसे ही हमें भी पूरे भारत के हिन्दुओं को, नाममात्र के मूल्य पर खेतीहर जमीनें देकर घाटी में बसा देना चाहिए। पूर्व सैनिकों के साथ ही ऐसे लोगों को वहां भेजा जाए,जो स्वभाव से जुझारू और शस्त्रप्रेमी होते हैं। सिख, जाट, गूजर आदि ऐसी ही कौमें हैं। ऐसे दस लाख परिवार यदि घाटी में पहुंच जाएं, तो वे स्वयं ही अलगाववादियों से निबट लेंगे।
कुछ लोग इसके लिए अनुच्छेद 370 को बाधा बताते हैं; पर यह ध्यान रहे कि दवा रोग मिटाने के लिए होती है। यदि उससे नया रोग पैदा होने लगे, तो उसे फेंकना ही उचित है। यदि अनुच्छेद 370 घाटी को देश से अलग करने में सहायक हो रहा है, तो उसे वैध-अवैध किसी भी तरह समाप्त करना ही होगा। मुस्लिम वोटों के दलाल चाहे जो कहें; पर यदि कश्मीर ही भारत में नहीं रहा, तो इस आत्माहीन अनुच्छेद का क्या हम अचार डालेंगे ?
कश्मीर भारत का मुकुटमणि है। डा0 श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बलिदान देकर ‘दो विधान, दो प्रधान और दो निशान’के कलंक को मिटाया था। मेजर सोमनाथ शर्मा जैसे हजारों वीरों ने प्राण देकर पाकिस्तान से इसकी रक्षा की है। क्या उनका बलिदान हम व्यर्थ जाने देंगे ? अब वार्ता के नाटक का नहीं, निर्णायक कार्यवाही का समय है। इसमें जितना समय हमारे अदूरदर्शी राजनेता गंवा रहे हैं, कश्मीर उतना हाथ से निकल रहा है।
कहते हैं कि जो इतिहास से शिक्षा नहीं लेते, उनके लिए इतिहास स्वयं को दोहराता है। सारा देश पूछ रहा है कि क्या एक बार फिर हम इसी नियति की ओर बढ़ रहे हैं ?
साभार : विजय कुमार