क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है? (28)
अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 28-11-2011
''सिंध श्रोत से हिन्दू सिंधु तक रहते आए हैं
इस धरती को मां कहते जो हिन्दू उनको कहते हैं
हिन्दू उनको कहते हैं, हम हिन्दू उन्हें ही कहते हैं
सम्प्रदाय हो चाहे जो भी, पूजा का कुछ ढंग रहे
प्रांत, जाति का प्रश्र नहीं, कुछ काला-गोरा रंग रहे
सब समाज अपनापन हो, सुख-दु:ख में नित संग रहे
राष्ट्र देह परिपुष्ट बनाने, जुटे सदा जो अंग रहे
मिलकर बढ़ते चरम शिखर तक, मिल कर संकट सहते हैं
इस धरती को मां कहते, हम हिन्दू उन्हें ही कहते हैं
एक हमारा रक्त, रक्त में एक भारती धारा है
एक हमारा शील, शील में एक भरी मर्यादा है
आजादी है बसी प्राण में, प्राण योग से बांधा है
भौतिकता के मस्त गजों को, संयम द्वारा साधा है
मानवता के अडिग उपासक, दानवता को दहते हैं
इस धरती को मां कहते हैं हम हिन्दू उन्हीं को कहते हैं।''
हिन्दुओं के देश में हमेशा से भेदभाव होता आया है। उसकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह जताया है। साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक को लेकर श्री जेतली कहते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान किए गए अपराध कानून और व्यवस्था की समस्या होती है। कानून और व्यवस्था की स्थिति से निपटना स्पष्ट रूप से राज्य सरकारों के क्षेत्राधिकार में आता है। केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन में केन्द्र सरकार को कानून और व्यवस्था संबंधी मुद्दों से निपटने का कोई प्रत्यक्ष प्राधिकार प्राप्त नहीं है; न तो उनसे निपटने के लिए उसके पास प्रत्यक्ष शक्ति प्राप्त है और न ही वह इस विषय पर कानून बना सकती है। केन्द्र सरकार का क्षेत्राधिकार इसे सलाह, निर्देश देने और धारा 356 के तहत यह राय प्रकट करने तक सीमित करता है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम कर रही है या नहीं। इस प्रस्तावित विधेयक द्वारा ही केन्द्र सरकार राज्यों के अधिकारों को हड़प लेगी और वह राज्यों के क्षेत्राधिकार में आने वाले विषयों पर कानून बना सकेगी।
भारत धीरे-धीरे और अधिक सौहार्दपूर्ण अन्तर-समुदाय संबंधों की ओर बढ़ रहा है। जब कभी भी छोटा सा साम्प्रदायिक अथवा जातीय दंगा होता है, तो उसकी निंदा हेतु एक राष्ट्रीय विचारधारा तैयार हो जाती है। सरकारें, मीडिया, अन्य संस्थाओं सहित न्यायालय अपना-अपना कर्त्तव्य निभाने के लिए तैयार हो जाते हैं। नि:संदेह साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा फैलाने वालों को दंडित किया जाना चाहिए तथापि इस प्रारूप विधेयक में यह मान लिया गया है कि साम्प्रदायिक समस्या केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा ही पैदा की जाती है और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य कभी ऐसा नहीं करते अत: बहुसंख्यकसमुदाय के सदस्यों द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ किए गए साम्प्रदायिक अपराध तो दंडनीय हैं। अल्पसंख्यक समूहों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ किए गए ऐसे अपराध कतई दंडनीय नहीं माने गए हैं। अत: इस विधेयक के तहत यौन संबंधी अपराध इस हालात में दंडनीय है यदि वह किसी अल्पसंख्यक 'समूह' के किसी व्यक्ति के विरुद्ध किया गया हो।
किसी राज्य में बहुसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति को 'समूह' में शामिल नहीं किया गया है। अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध 'घृणा संबंधी प्रचार' को अपराध माना गया है जबकि बहुसंख्यक समुदाय के मामले में ऐसा नहीं है। संगठित और लक्षित हिंसा, 'घृणा संबंधी प्रचार', ऐसे व्यक्तियों को वित्तीय सहायता, जो अपराध करते हैं, यातना देना या सरकारी कर्मचारियों द्वारा अपनी ड्यूटी में लापरवाही, ये सभी उस हालात में अपराध माने जायेंगे यदि वे अल्पसंख्यक समुदाय के किसी सदस्य के विरुद्ध किये गये हों अन्यथा नहीं। बहुसंख्यक समुदाय का कोई भी सदस्य कभी भी पीडि़त नहीं हो सकता।
विधयेक का यह प्रारूप अपराधों को मनमाने ढंग से पुनर्परिभाषित करता है। अल्पसंख्यकसमुदाय का कोई भी सदस्य इस कानून के तहत बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध किए गए किसी अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सकता। केवल बहुसंख्यक समुदाय का सदस्य ही ऐसे अपराध कर सकता है और इसलिए इस कानून का विधायी मंतव्य यह है कि चूंकि केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य ही ऐसे अपराध कर सकते हैं, अत: उन्हें ही दोषी मानकर उन्हें दंडित किया जाना चाहिए। यदि इसे ऐसे स्वरूप में लागू किया जाता है, जैसा कि इस विधेयक में प्रावधान है, तो इसका भारी दुरुपयोग हो सकता है। इससे कुछ समुदायों के सदस्यों को ऐसे अपराध करने की प्रेरणा मिलेगी और इस तथ्य से वे और उत्साहित होंगे कि उनके विरुद्ध कानून के तहत कोई आरोप तो कभी लगेगा ही नहीं। आतंकी ग्रुप अब आतंकी हिंसा नहीं फैलाएंगे। उन्हें साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने में प्रोत्साहन मिलेगा क्योंकि वे यह मानकर चलेंगे कि जेहादी ग्रुप के सदस्यों को इस कानून के अन्तर्गत दंडित नहीं किया जाएगा।(क्रमश:)
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