Thursday, April 2, 2009

"वरूण गांधी का मामला"


वरूण गांधी का मामला



सन् 1937 और 2009 में क्या फर्क है?



- देवेन्द्र स्वरूप




बुधवार 25 मार्च को, रात्रि 9.00 बजे की खबरों में आई.बी.एन.-7 चैनल पर आशुतोष वरुण गांधी के बहाने भाजपा पर लाठी भांज रहे थे। वे, संदीप चौधरी और उनका संवाददाता चौराहे पर दवा बेचने वाले के लहजे में गला फाड़-फाड़कर बड़े भावुक अंदाज में वरुण और भाजपा की लानत-मलामत कर रहे थे। दोपहर में वे वरुण गांधी के वकील गोपाल चतुर्वेदी से इस आक्रामकता के साथ जिरह कर रहे थे मानो गोपाल चतुर्वेदी कठघरे में खड़े हों और आशुतोष उनके विपक्षी के वकील के नाते उनसे जिरह कर रहे हों। दोपहर और रात्रि में चैनल के तेवरों को देखकर लगता था कि हम किसी समाचार चैनल पर खबरें नहीं, किसी राजनीतिक दल का चुनाव-प्रचार देख-सुन रहे हैं। पीलीभीत लोकसभा चुनाव क्षेत्र में भाजपा के प्रत्याशी वरुण गांधी के भड़काऊ भाषण की कोई 'प्राइवेट सी.डी.' अचानक 15 मार्च को प्रगट हुई और तब से वरुण गांधी राजनीतिक दलों और मीडिया पर छा गये। उन्हें मुस्लिमविरोधी चित्रित किया जाने लगा। उन्हें चुनाव मैदान से हटाने की मुहिम शुरू हो गयी। 17 मार्च को उनके खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करायी गयी। उनके विरुध्द गैरजमानती वारंट जारी करने और गिरतार करने की मांग उठायी जाने लगी। बात उनके मुस्लिमविरोधी भाषण तक ही नहीं रुकी। उनको सिख विरोधी भी कहा गया। चार दिन बाद उस क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी ने एक नई सीडी जारी की, जिसमें वरुण को मतदाताओं के बीच पैसे बांटते हुए दिखाया गया। यह कांग्रेसी प्रत्याशी वरुण की ननसार से जुड़ा कोई सिख ही है। वरुण को चुनाव मैदान से हटाने के लिए सोनिया पार्टी चुनाव आयोग से गुहार लगाने लगी। प्रियंका और राहुल भी अपने चचेरे भाई की आलोचना के लिए मैदान में उतर आये। इससे साफ हो गया कि वरुण विरोधी अभियान में सोनिया परिवार की पारिवारिकर् ईष्या व वैमनस्य की अहम भूमिका है। सोनिया परिवार नहीं चाहता कि इन्दिरा गांधी वंश का कोई और चेहरा राजनीति में उनके एकाधिकार को चुनौती दे।

वरुण के बहाने
किन्तु वरुण गांधी विरोधी अभियान केवल सोनिया पार्टी तक सीमित नहीं है। सभी राजनीतिक दल इसे भुनाने में लग गये हैं और मीडिया का पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं। उनके हमले का मुख्य लक्ष्य वरुण नहीं बल्कि भाजपा और हिन्दुत्व है। वे इस प्रकरण के बहाने भाजपा और हिन्दुत्व का हौव्वा खड़ा कर रहे हैं। शायद मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए हिन्दुत्व का आक्रामक व खूंखार चेहरा स्क्रीन पर दिखाना बहुत आवश्यक है। 1989 के चुनाव से रामजन्मभूमि आंदोलन का इस्तेमाल किया जाता था, 2002 से गुजरात के दंगों का इस्तेमाल किया जाने लगा। अब ये दोनों ही मुद्दे बेजान हो चुके हैं। गुजरात साम्प्रदायिक सद्भाव के साथ विकास के रास्ते पर अन्य सब राज्यों से आगे दौड़ रहा है। गुजरात का मुस्लिम समाज नरेन्द्र मोदी और भाजपा विरोधी प्रचार से ऊपर उठकर गुजरात सरकार के साथ खड़ा है। लेकिन मुस्लिम वोटों के बिना छोटे-बड़े छद्म सेकुलरों की चुनाव गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती और मुस्लिम वोटों को आक्रामक खूनी हिन्दुत्व का हौवा दिखाये बिना रिझाया नहीं जा सकता। किंकर्तव्यविमूढ़ता के इस वातावरण में वरुण गांधी के तथाकथित जहरीले मुस्लिमविरोधी भाषण की कोई सी.डी. आठ दिन बाद सेकुलरों के लिए वरदान बनकर आयी और वे उसे लेकर प्रचार अभियान में जुट गये। वरुण गांधी के खिलाफ वारंट निकल गये, उन्होंने इलाहाबाद और दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, अंतरिम राहत के लिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनको जमानत देने से इनकार कर दिया, जिसके विरुध्द उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। इधर चुनाव आयोग ने उनके इस तर्क को ठुकरा दिया कि सी.डी. में उनके भाषण के साथ छेड़छाड़ की गयी है, उसमें 17 जगह छेड़खानी के निशान हैं। चुनाव आयोग के पास किसी प्रत्याशी को चुनाव मैदान से हटाने का कानूनी अधिकार न होने के कारण चुनाव आयोग ने भाजपा को सलाह दे डाली कि वह वरुण गांधी को प्रत्याशी न बनाये। किंतु भाजपा ने साफ कह दिया कि सी.डी. के साथ छेड़छाड़ का मामला न्यायालय के विचाराधीन है, अत: चुनाव आयोग को भाजपा को यह आदेश देने का अधिकार नहीं है कि वह वरुण गांधी को प्रत्याशी न बनाये, क्योंकि यह तो भाजपा विरोधियों की जीत होगी।

चुनावी षडयंत्र
एकाएक वरुण गांधी के एक भाषण को लेकर भारतीय राजनीति और मीडिया में जो उबाल आया उसके पीछे वोट बैंक राजनीति का कोई षडयंत्र अवश्य काम कर रहा है, इसकी पुष्टि 25 मार्च को ही एनडीटीवी चैनल पर गोरखपुर से भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के एक साल पुराने चुनावी भाषण की सीडी को दिखाने से हो गयी। एनडीटीवी का प्रस्तोता उस सी.डी. को दिखाते हुए स्क्रीन पर लिखी किसी इबारत को पढ़ता जा रहा था। उसने माना कि यह सी.डी. एक साल बाद पहली बार हमें प्राप्त हुई है। यह भाषण आजमगढ़ जिले की किसी चुनाव सभा में योगी आदित्यनाथ ने दिया बताते हैं। उस सी.डी. को गुप्त रूप से बनाने और एक साल बाद जारी करने का श्रेय आजमगढ़ के एक वकील मोहम्मद असद हयात को दिया गया। मो.असद हयात को लहराती हुई दाढ़ी के साथ स्क्रीन पर दिखाया गया। गोरक्षपीठ का इतिहास बताया गया। महंत अवैद्यनाथ को भी दिखाया गया। प्रस्तोता स्क्रीन पर लिखी जिस 'कमेन्ट्री' को पढ़ रहा था, उसे किसी समाचार चैनल की भाषा कहने के बजाए चुनावी भाषण कहना उचित होगा। उसमें कहा गया कि आजमगढ़ का मुसलमान बटला हाउस की मुठभेड़ के समाचार से पहले ही आहत है, उसे बिना-वजह बदनाम किया जा रहा है। टी.वी. पर भाजपा की मुस्लिम विरोधी छवि बनाने की कोशिश की जा रही थी। भाजपा विरोधी रंग को पक्का करने के लिए भाजपा के सांसद बलवीर पुंज से साक्षात्कार लिया गया। पुंज ने दो सवाल उठाये कि एक साल तक यह सीडी कहां थी और चुनाव के समय ही इसे क्यों दिखाया जा रहा है? सुबह से शाम तक वरुण गांधी के एक पुराने भाषण की विकृत सीडी को हर चैनल पर बार-बार दिखाने के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है? यदि आपको साम्प्रदायिक सौहार्द की इतनी ही चिंता है तो अभी एक सप्ताह पहले 15 मार्च को चंडीगढ़ में एक चुनावी रैली में सोनिया कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष इमरान किदवई ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर मैं मुती होता तो मैं फतवा जारी कर देता कि भाजपा को वोट देना कुफ्र है। कुरान की भाषा में कुफ्र का अर्थ इस्लाम विरोधी काफिर होता है। किदवई के इस भाषण के समय सोनिया कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेता-मोहसिना किदवई और पवन कुमार बंसल मंच पर मौजूद थे। भाजपा ने इस साम्प्रदायिक भाषण के विरुध्द चुनाव आयोग को लिखित शिकायत भेजी है। लेकिन न तो चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई की और न ही सोनिया कांग्रेस ने इमरान किदवई के उस जहरीले भाषण से अपने को अलग किया। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि जो टेलीविजन चैनल वरुण गांधी और योगी आदित्यनाथ के पुराने भाषणों की संदिग्ध सी.डी. के आधार पर मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के विरुध्द भड़काने में लगे हैं, वही इस सी.डी. के बारे में पूरी तरह खामोश हैं। इमरान ने अपने भाषण में कहा कि मुसलमान शरीयत के अलावा कोई अन्य निजी कानून नहीं मानेंगे और कांग्रेस ने हमें वचन दिया है कि शरीयत मुसलमानों का ईमान है, उसे कदापि नहीं बदला जाएगा। किदवई ने भारत की स्वतंत्रता का श्रेय भी गांधी और नेहरू की स्वतंत्रता पूर्व कांग्रेस को मुसलमानों के भारी समर्थन को दिया।

मुस्लिम राजनीति का इतिहास
इतिहास में इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? इतिहास साक्षी है कि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय से कांग्रेस के लाख कोशिश करने पर भी मुस्लिम समाज कांग्रेस अधिवेशनों में सम्मिलित नहीं हुआ। उस समय के तीन बड़े मुस्लिम नेताओं-सर सैयद अहमद खान, जस्टिस अमीर अली और लतीफ खान ने कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं की संस्था घोषित करके उसके बहिष्कार का आह्नान किया। 1937 के चुनाव में गांधी और नेहरू की कांग्रेस को 482 मुस्लिम सीटों में से केवल 25 सीटों पर सफलता मिली थी। इन परिणामों से चिंतित होकर कांग्रेस अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान छेड़ा। इसके लिए कम्युनिस्ट प्रोफेसर के.एम.अशरफ के अधीन एक स्वतंत्र कक्ष स्थापित किया, किंतु पूरे भारत में कांग्रेस संगठन में मुस्लिम कार्र्यकत्ताओं के अभाव के कारण इस अभियान को और अशरफ के विभाग को बंद करना पड़ा। कांग्रेस ने मुसलमानों को आकर्षित करने के लिए कुरान के अधिकारी व्याख्याकार मौलाना अबुल कलाम आजाद को अपना अध्यक्ष चुना किंतु मुस्लिम समाज ने उन्हें हिन्दू कांग्रेस के एजेंट के रूप में देखा और कभी नमाज न पढ़ने वाले, सुअर का मांस खाने वाले, उर्दू में भाषण देने में अक्षम मुहम्मद अली जिन्ना को अपना नेता चुना, क्योंकि उन्होंने द्विराष्ट्रवाद की भाषा बोली, पाकिस्तान की मांग उठायी और उसे पाने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। दिसंबर, 1945 के चुनाव में केन्द्रीय असेम्बली में मुस्लिम लीग को सभी मुस्लिम सीटों पर विजय मिली। 1946 में प्रांतीय विधानसभा चुनावों में पंजाब की 86 मुस्लिम सीटों में से 79, बंगाल की 119 में से 113, सिंध की 35 में से 27, असम की 34 में से 31, बम्बई की 30 में से 30, मद्रास की 29 में से 29, उड़ीसा की 4 में से 4, सीपी और बरार की 14 में से 13, बिहार की 54 में से 34 और संयुक्त प्रांत की 66 में से 54 सीटें मुस्लिम लीग की झोली में गईं। गांधी की कांग्रेस राष्ट्रवाद की लहर के कारण 7 हिन्दू बहुल प्रांतों में भारी बहुमत से सत्ता में आई। उसे हिन्दुओं के 91.3 प्रतिशत मत मिले। पर राष्ट्रवाद की इस विजय को मुस्लिम समाज ने हिन्दू कांग्रेस की विजय के रूप में देखा और वह कांग्रेस शासन के प्रति शत्रुभाव से भर गया। उसकी इस कांग्रेस विरोधी भावना को भांपकर ही जिन्ना ने मोहम्मद इकबाल की सलाह की उपेक्षा करके अक्तूबर 1937 में मुस्लिम लीग अधिवेशन को लाहौर की बजाय लखनऊ में बुलाया। उसने गांधी को हिन्दू पुनरुत्थानवादी कहा और कांग्रेस राज को मुसलमानों पर हिन्दू राज थोपने की साजिश बताया। कांग्रेस के विरुध्द मुस्लिम संघर्ष को मुक्ति संघर्ष का नाम दिया।

वोट बैंक की खातिर
मुस्लिम आंखों में स्वतंत्रता के पूर्व जो स्थिति गांधी की अथवा कांग्रेस की थी, वही आज भारतीय जनता पार्टी की है। फर्क इतना है कि उस समय राष्ट्रवाद की भावना ने हिन्दू समाज को एकता के सूत्र में गूंथ दिया था और वह गांधी के नेतृत्व में एकजुट था। अब गांधी की कांग्रेस मर चुकी है और वोट बैंक राजनीति ने हिन्दू समाज को जाति, क्षेत्र और सत्तालोलुप व्यक्तियों के आधार पर बुरी तरह विभाजित कर दिया है। एक ताजा समाचार के अनुसार इस समय चुनाव आयोग के साथ 1900 से अधिक राजनीतिक दलों का पंजीकरण हो चुका है। इनमें से 54 दलों को राज्य स्तर पर और 7 दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दी गई है। इस सामाजिक विखंडन के फलस्वरूप मुस्लिम वोट बैंक सबसे बड़ा बनकर उभर आया है और प्रत्येक दल उन्हें रिझाने में लग गया है। जो मुस्लिम नेता राष्ट्रवाद के साथ खड़ा होता है उसे ये सत्तालोभी हिन्दू एजेंट घोषित कर देते हैं। भारतीय राष्ट्रवाद इनकी कृष्टि में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता है और मुस्लिम कट्टरवाद सेकुलर। गैर भाजपावाद ही उनकी गठबंधन राजनीति का एकमात्र आधार है। मुलायम सिंह, लालू यादव, रामविलास पासवान, मायावती, करुणानिधि आदि प्रत्येक राजनेता जो जातिवाद और क्षेत्रवाद की आधार भूमि पर खड़ा है, मुस्लिम कट्टरवाद की खुशामद करने में लगा है। मुलायम सिंह देवबंद के दारुल उलूम की चौखट पर नाक रगड़ रहे हैं, लालू और पासवान ओसामा बिन लादेन के हमशक्ल को चुनाव सभाओं में ले जाते हैं। सबसे दयनीय स्थिति तो कम्युनिस्टों की है, जो केरल में कांग्रेस-मुस्लिम लीग गठबंधन की काट के लिए केरल के आतंकवादी मुस्लिम नेता अब्दुल नाजिर मदनी की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के मुस्लिम नेताओं के साथ एक ही मंच पर बैठे रहे हैं। मदनी को लेकर माकपा के भीतर ही मतभेद गहरा हो गया है। मुख्यमंत्री अच्युतानंदन मदनी की जांच कराना चहाते हैं जबकि राज्य सचिव पिनराई विजयन उसे गले से लगाकर घूम रहे हैं। वे मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए सद्दाम और ओसामा के चित्रों का सहारा ले रहे हैं। बंगाल में नंदीग्राम के कारण मुसलमानों का बड़ा वर्ग वाममोर्चे से छिटककर तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़ा दिखता है, इसलिए कम्युनिस्टों को सत्ता खिसकती लग रही है। कम्युनिस्टों की कृष्टि में केवल भारतीय जनता पार्टी ही सांप्रदायिक है। जो दल जब तक भाजपा के साथ हैं तब तक उनके लिए साम्प्रदायिक व अछूत हैं, भाजपा से अलग होते ही वह 'सेकुलर' हो जाते हैं। सच तो यह है कि 1937 में संगठित राष्ट्रवाद का संघर्ष साम्राज्यवाद-पृथकतावाद गठबंधन से था तो इस समय उसे विघटनवाद व कट्टरवाद के गठबंधन से जूझना पड़ रहा है।
- साभार पांचजन्य

3 comments:

अक्षत विचार said...

gahra chintan..

dinesh dhawan said...

बहुत घटिया लिखा है.
आपने चौराहों पर मज़मा लगाकर दवा बेचने वालों की IBN के संवाददाताओं से तुलना की है. आपको क्या हक है चौराहों पर इन मज़मा वालों की बे-इज्जती करने का?

ये मज़मे वाले IBN या NDTV वालों जितने स्वार्थी - आखों और अक्ल के अंधे नहीं होते!

Kaul said...

इस वीडियो को देखें जिस में दर्शाया गया है कि मीडिया ने वरुण की बातों और वीडियो को कैसे तोड़ा मरोड़ा है।
http://www.youtube.com/watch?v=oUUVkeSBPOA

यह आम भारतीय की आवाज है यानी हमारी आवाज...