Monday, September 12, 2011

कांग्रेस : जिन्‍ना की तहरीर ?

साम्‍प्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक के प्रारूप को लेकर जिस प्रकार विभिन्न राजनीतिक दलों ने असन्तोष प्रकट किया है वह पूरी तरह जायज है क्‍योंकि भारत के नागरिकों को बहुसंख्‍य व अल्पसंख्‍य में बांट कर अगर कानून की तहरीरें लिखी जायेंगी तो यह देश फिर टुकड़ों में बिखर जायेगा। मगर इससे भी बड़ा सवाल एक और है जिसकी तरफ फिलहाल किसी राजनीतिक दल ने या तो ध्यान नहीं दिया है या फिर इसे वे जानबूझ कर अनदेखा करना चाहते हैं। यह सवाल है कि मुल्क की हुकूमत डा. मनमोहन सिंह की सरकार चला रही है या कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा चुने गये कुछ चाटुकार मनपसन्द लोग चला रहे हैं? कानून बनाने का अधिकार किसका है? सरकार का या संसद से बाहर बैठे हुए कुछ स्वनामधन्य विशेषज्ञों का? यह विधेयक सरकार के गृह मन्त्रालय या कानून मन्त्रालय ने तैयार नहीं किया है बल्कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया है जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। इस परिषद की संवैधानिक वैधता क्‍या है? किस हैसियत से आज पूरा देश इस विधेयक पर विचार कर रहा है? अब संसद का वह अधिकार कहां गायब हो गया है जो अन्ना हजारे के जन लोकपाल विधेयक के मुद्दे पर सामने आ गया था?

यह समझा जाना चाहिए कि सोनिया गांधी कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष हैं जबकि मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमन्त्री हैं। वह इस देश के प्रत्येक राजनीतिक दल के नागरिकों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। अगर सलाहकार परिषद के किसी विधेयक पर विचार होना है तो वह कांग्रेस पार्टी के महाधिवेशन में होना चाहिए न कि राष्ट्रीय एकता परिषद में। इस परिषद की स्थापना ही दलगत भेद को भूल कर राष्ट्रीय एकात्मता स्थापित करने के उद्देश्य से की गई थी। इसमें किसी विशिष्ट पार्टी के एजैंडे पर कैसे बातचीत हो सकती है। मगर हो रही है और खुद प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह करा रहे हैं। सवाल खड़ा हो सकता है कि फिर उनके 80 मन्त्री क्‍या कर रहे हैं? क्‍या यह भी गठबन्धन की बेचारगी है? मुझे लगता है कि यह वह मजबूरी है जो डा. मनमोहन सिंह को इस देश का मनोनीत प्रधानमन्त्री बना कर की गई थी और एहसान लादा गया था कि 'हमारे ही दिये गये तोहफे के दम से तुम हो।' क्‍या भारत का प्रधानमन्त्री किसी के एहसान का मोहताज है कि वह अपना संवैधानिक कार्य भी पूरी स्वतन्त्रता के साथ न कर सके। किस प्रकार इस देश में ऐसे साम्‍प्रदायिक विधेयक को कानून बनाया जा सकता है जो बहुसंख्‍य समाज को आततायी घोषित करके ही कांग्रेस पार्टी के लिए वोट इकट्ठाा करने का इन्तजाम बांधे। यह सवाल हिन्दू-मुसलमान से नहीं जुड़ा है बल्कि भारत की रगों में बहते उस खून से जुड़ा हुआ है जिसे भारतीय संस्कृति कहा जाता है। क्‍या कांग्रेस पार्टी इस सवाल का जवाब दे सकती है कि 1947 में इस मुल्क के दो टुकड़े मजहब को धार बना कर क्‍यों हुए? वह कौन-सी मानसिकता थी जिसकी वजह से पाकिस्तान की तामीर हुई? निश्चित रूप से वह मानसिकता ठीक उसी प्रकार की थी जिस प्रकार की इस विधेयक में पेश की गई है। फर्क सिर्फ इतना है कि 1947 में मुहम्‍मद अली जिन्ना इस मानसिकता के तहत काम कर रहे थे और आज यह सलाहकार परिषद कर रही है। जरा इन से कोई पूछे कि उस हिन्दोस्तान के लोगों को इन्हें हिन्दू और मुसलमान व अल्पसंख्‍यक और बहुसंख्‍यक में बांटने का अधिकार किसने दे दिया जिसका संविधान यह ऐलान करता है कि देश के सभी नागरिकों के हक बराबर हैं और कानून की नजर में न कोई हिन्दू है और न मुसलमान या सिख व ईसाई।

मगर अफसोस वोटों को पक्का करने के लिए इस मुल्क के लोगों को यह एहसास कराया जा रहा है कि वे कानून की नजर में भी अपने-अपने धर्म के आइने में देखे जायेंगे। पहले इस सलाहकार परिषद को भारत का संविधान गौर से पढ़ लेना चाहिए। क्‍या यह परिषद भारत का संविधान भी बदलेगी और मनमोहन सिंह से कहेगी कि हमारे एहसानों को चुकाओ और इस पर अपनी मुहर लगाओ। याद रखा जाना चाहिए भारत के जिस बहुसंख्‍य हिन्दू समाज को आततायी चंगेज खान से लेकर औरंगजेब तक जैसे सुल्तान हिंसक नहीं बना सके और उन्होंने अपने ही भाइयों को अपना मजहब बदलने के बावजूद गले से लगाये रखा उसे ये हवा में गांठे मारने वाले लोग किस तरह हिंसक बना सकते हैं ?


साभार :-

पंजाब केसरी 12 सितम्‍बर 2011

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