कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस–नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग–अंग में जोश झलक।
ये - बंधन चिरबंधन
टूटें – फूटें प्रासाद गगनचुम्बी
हम मिलकर हर्ष मना डालें,
हूकें उर की मिट जाएँ सभी।
यह भूख – भूख सत्यानाशी
बुझ जाय उदर की जीवन में।
हम वर्षों से रोते आए
अब परिवर्तन हो जीवन में।
क्रंदन – क्रंदन चीत्कार और,
हाहाकारों से चिर परिचय।
कुछ क्षण को दूर चला जाए,
यह वर्षों से दुख का संचय।
हम ऊब चुके इस जीवन से,
अब तो विस्फोट मचा देंगे।
हम धू - धू जलते अंगारे हैं,
अब तो कुछ कर दिखला देंगे।
अरे ! हमारी ही हड्डी पर,
इन दुष्टों ने महल रचाए।
हमें निरंतर चूस – चूस कर,
झूम – झूम कर कोष बढ़ाए।
रोटी – रोटी के टुकड़े को,
बिलख–बिलखकर लाल मरे हैं।
इन – मतवाले उन्मत्तों ने,
लूट – लूट कर गेह भरे हैं।
पानी फेरा मर्यादा पर,
मान और अभिमान लुटाया।
इस जीवन में कैसे आए,
आने पर भी क्या पाया?
रोना, भूखों मरना, ठोकर खाना,
क्या यही हमारा जीवन है?
हम स्वच्छंद जगत में जन्मे,
फिर कैसा यह बंधन है?
मानव स्वामी बने और—
मानव ही करे गुलामी उसकी।
किसने है यह नियम बनाया,
ऐसी है आज्ञा किसकी?
सब स्वच्छंद यहाँ पर जन्मे,और मृत्यु सब पाएँगे।
फिर यह कैसा बंधन जिसमें,
मानव पशु से बंध जाएँगे ?
अरे! हमारी ज्वाला सारे—
बंधन टूक-टूक कर देगी।
पीड़ित दलितों के हृदयों में,
अब न एक भी हूक उठेगी।
हम दीवाने आज जोश की—
मदिरा पी उन्मत्त हुए।
सब में हम उल्लास भरेंगे,
ज्वाला से संतप्त हुए।
रे कवि! तू भी स्वरलहरी से,
आज आग में आहुति दे।
और वेग से भभक उठें हम,हद् – तंत्री झंकृत कर दे।
Thursday, December 25, 2008
Monday, December 22, 2008
"खुशवंत को ठेस लगी?"
सरदार खुशवंत सिंह पिछले कई सप्ताह से अपने साप्ताहिक स्तंभ 'बुरा मानो या भला' में हिन्दू संत-महात्माओं तथा साध्वियों के विरुध्द खुलकर दुष्प्रचार में लगे हुए थे। वे शायद बहक कर यहां तक लिख गये कि 'इस्लामी आतंकवाद' का प्रचार सुनियोजित षडयंत्र के रूप में किया जा रहा है। खुशवंत सिंह 26 नवम्बर की रात को दिल्ली में अपने निवास स्थान में बैठे टेलीविजन पर मुम्बई हमले के दृश्य देख रहे थे। वे अपने 13 दिसंबर को प्रकाशित स्तंभ 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' में लिखते हैं- 'टीवी पर यह भी बताया गया कि एक हमलावर को मार गिराया गया है। मैंने उम्मीद की और प्रार्थना की कि उसके शव की जांच से यह पता न चले कि वह मुसलमान था। अफसोस कि वह मुसलमान था। और इसी तरह बाकी गैंग के सदस्य भी मुसलमान थे-पाकिस्तानी थे।'
खुशवंत सिंह आगे लिखते हैं, 'इससे उन लोगों को बहुत ठेस पहुंची है जो भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच पुल बनाने का काम करने की कोशिश कर रहे थे।'
खुशवंत सिंह आगे लिखते हैं, 'इससे उन लोगों को बहुत ठेस पहुंची है जो भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच पुल बनाने का काम करने की कोशिश कर रहे थे।'
खुशवंत सिंह ने अपने लेख में आतंकवाद के विरुध्द एकजुटता की संभावना व्यक्त की है किंतु क्या उनके उपरोक्त शब्दों से यह आभास नहीं होता कि वे हृदय से चाहते थे कि मुम्बई कांड में किसी मुसलमान को दोषी न पाया जाए, जिससे वे हिन्दू संगठनों पर, साधु-साध्वियों पर निकाली गई अपनी भड़ास को सही सिध्द कर सकें?
मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के पीछे पाकिस्तानियों का हाथ उजागर हो जाने से भारत के सेकुलरवादी, वामपंथी तथा हिन्दू विरोधी तत्वों के 'हिन्दू आतंकवाद' का हौव्वा खड़ा करने के मंसूबों पर पानी फिर गया।
मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के पीछे पाकिस्तानियों का हाथ उजागर हो जाने से भारत के सेकुलरवादी, वामपंथी तथा हिन्दू विरोधी तत्वों के 'हिन्दू आतंकवाद' का हौव्वा खड़ा करने के मंसूबों पर पानी फिर गया।
- साभार पांचजन्य
Sunday, December 7, 2008
"जनता का चंदन, घिसे नेता नन्दन"
राजनीतिज्ञ सामान्य देशवासियों की आतंकियों से रक्षा करने में असमर्थ सिध्द हुए हैं वे करदाता जनता के पैसे से सैकड़ों करोड़ रूपये अपनी स्वयं की रक्षा पर खर्च कर रहे हैं। इनकी रक्षा पर 250 करोड़ रूपए खर्च होता है। आतंक विरोधी राष्ट्रीय सुरक्षा दल के 7000 कमांडो में से 1700 इन राजनीतिज्ञों की सुरक्षा में लगे हैं। आई.टी.बी.पी., सी.आई.एस.एफ., सी.आर.पी.एफ., बी.एस.एफ. और सशस्त्र सुरक्षा बल आदि बलों का काफी बड़ा फिस्सा इन राजनीतिज्ञों की सुरक्षा में लगा है। इनके अतिरिक्त प्रधानमंत्री, पूर्व प्रधानमंत्रियों एवं सोनिया गांधी परिवार की सुरक्षा के लिए अलग से 'विशेष सुरक्षा दल' गठित किया गया है। 2007-08 में इस बल का बजट 117 करोड़ रूपए था जो 2008-09 में बढ़कर 180 करोड़ रूपए पहुंच गया है। जबकि करोड़ों देशवासियों की रक्षा का दायित्व जिस राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड पर है उसका बजट पिछले वर्ष के 159 करोड़ से घटकर 150 करोड़ रूपए रह गया है। इन केन्द्रीय सुरक्षाबलों के अलावा प्रत्येक राज्य अपनी पुलिस फोर्स को इन विशिष्ट लोगों की सुरक्षा में लगाता है। अकेले राजधानी दिल्ली में अति विशिष्ट लोगों की रात-दिन सुरक्षा में 14,200 पुलिसकर्मी लगे रहते हैं। टाइम्स आफ इंडिया का कहना है कि इनमें से अनेक राजनीतिज्ञों की सुरक्षा को कोई खतरा नहीं है, उन्होंने इन सुरक्षा प्रबंधों को अपनी प्रतिष्ठा का प्रतीक बना लिया है। स्वयं सुरक्षा के घेरे में बंद राजनीतिज्ञ आतंकियों द्वारा मारे गए लोगों के परिवारों के प्रति सहानुभूति के मगरमच्छी आंसू बहाते हुए जन कोष से उनको बड़े आर्थिक अनुदान और यदि संभव हुआ तो उनके परिवार के किसी व्यक्ति को सरकारी नौकरी देने की घोषणा कर देते हैं। स्पष्ट ही, क्योंकि कुछ भी उनकी जेब से नहीं जाता, यह मार भी जनता ही वहन करती है। राजनीतिज्ञों के इस दोहरे चेहरे के प्रति जनाक्रोश गहरा रहा है। दिल्ली उच्च न्यायालय राजनीतिज्ञों की सुरक्षा व्यवस्था के विरूध्द एक जनहित याचिका पर विचार कर रहा है। मुम्बई के जिहादी हमले में घायल होकर वहीं अस्पताल में भर्ती हरियाणा निवासी कमांडो सुनील के पिता रामकिशन ने दैनिक भास्कर से विशेष बातचीत में केरल के माकपाई मुख्यमंत्री अच्युतानंदन की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया करते हुए कहा कि यह खेद की बात है कि जो राजनेता बिना सिक्युरिटी के चल नहीं सकते वे उन्हीं जवानों के बारे में इस तरह की बातें करते हैं जो उन्हें सुरक्षित रखते हैं। अगर केरल के मुख्यमंत्री वास्तव में खुद को शेर समझते हैं तो अपने चारों तरफ लगाए गये जवानों की सिक्योरिटी हटाकर रहें। (भास्कर 3 दिसंबर)। यहां यह स्मरण दिलाना उचित रहेगा कि 26 जुलाई, 2008 को अहमदाबाद के बम विस्फोट के बाद ही हमने दृश्य समाज का आत्मबल बढ़ाने के उद्देश्य से इन अतिविशिष्ट नेताओं से प्रार्थना की थी कि वे स्वयंमेव अपनी सुरक्षा व्यवस्था का परित्याग कर नव दधीचि का उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत करें, पर नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है। यहां तो इतना ही है कि 'जनता का चंदन, घिसे नेता नंदन।
Thursday, December 4, 2008
"अभी और कितनी लाशें"
अभी हाल ही में मुम्बई में हुए आतंकवादी हमलें में सैकड़ों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इस्लामिक आतंकवाद का राक्षस एक बार फिर सैकड़ों लोगों को अपना ग्रास बना गया। एक बार फिर इस आतंकवादी घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। फिर से सभी खबरिया चैनलों पर अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए लाईव तस्वीरे दिखाने की होड़ मच गई। उनका मकसद लोगों को इस्लामिक आतंकवाद और उनके उद्देश्य से अवगत कराना नहीं बल्कि आतंकवादियों द्वारा मारे गए निर्दोष लोगों की लाशों के विभत्स चित्र दिखाकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाना था कि देखिए हमारा चैनल सबसे नम्बर वन है जिसने सबसे पहले गोलीबारी की परवाह न करते हुए आप लोगों तक यह तस्वीरे पहुंचाई। मैंने कभी पढ़ा था कि पत्रकारिता राष्ट्र का एक मजबूत स्तम्भ है। परन्तु आज लगता है कि हमारे देश में यह स्तम्भ खोखला हो गया है। विदेशी ताकतों से पैसा ले लेकर यह अपना कर्तव्य भूल गया है। परन्तु ये लोग यह बात भूल जाते हैं कि यदि देश ही नहीं बचा तो कुछ भी नहीं बचेगा। इस्लामिक आतंकवाद का उद्देश्य ही भारत को दारूल इस्लाम बनाना है। और इसके लिए उसकी पूरी योजनाएं चल रही हैं। परन्तु हमारी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार को यह सब दिखाई नहीं देता। इनको तो इसकी ज्यादा परवाह है कि यह सरकार कैसे बचाई जाए। और इसके लिए ये इस देश के सारे लोगों की लाशें बिछवानें में भी संकोच नहीं करेंगे। जब से यूपीए सरकार बनी है तब से इतनी सारी आतंकवादी घटनाएं हो चुकी हैं। परन्तु इनसे आतंकवाद के खिलाफ एक कानून भी नहीं बनाया गया। अपितु पहले से जो कानून 'पोटा' था उसको भी निरस्त कर दिया। पता नहीं अभी इनको और कितनी लाशें देखनी है।
आतंकवाद से लड़ने के लिए एक दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। इस्लामिक आतंकवाद का यह दानव तभी परास्त होगा जब पूरा राष्ट्र एकजुट होकर इसका सामना करेगा। क्योंकि हमारी यह सरकार तो निक्कमी, नाकारा और नपुंसक हो चुकी है। इसे तो अपने वोट बैंक के सिवा और कुछ दिखाई और सुनाई नहीं देता। देखिए बदलाव तभी होता है जब आम जनता जागृत होती है। जब तक हम एकजुट नहीं होंगे तब तक ये नेता और राजनेता हमारी बात नहीं सुनेंगे और इसी तरह हमें निर्दोष लोगों की लाशों को गिनना पड़ेगा।
आतंकवाद से लड़ने के लिए एक दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। इस्लामिक आतंकवाद का यह दानव तभी परास्त होगा जब पूरा राष्ट्र एकजुट होकर इसका सामना करेगा। क्योंकि हमारी यह सरकार तो निक्कमी, नाकारा और नपुंसक हो चुकी है। इसे तो अपने वोट बैंक के सिवा और कुछ दिखाई और सुनाई नहीं देता। देखिए बदलाव तभी होता है जब आम जनता जागृत होती है। जब तक हम एकजुट नहीं होंगे तब तक ये नेता और राजनेता हमारी बात नहीं सुनेंगे और इसी तरह हमें निर्दोष लोगों की लाशों को गिनना पड़ेगा।
Wednesday, December 3, 2008
"मेरी आवाज, हमारी आवाज"
बहुत समय से सोच रहा था कि मैं भी कुछ लिखूं। वैसे मुझे लिखने का कोई अभ्यास नहीं है। सिर्फ इतना जरूर है कि मन में कभी-कभी कुछ सवाल उठते हैं। जैसे की सभी लोगों के मन में उठते हैं। पर वे अपने विचारों को व्यक्त नहीं कर पाते। क्योंकि आज की भागती हुई जिंदगी में समय ही किसके पास है कि वो सोचे उस पर विचार करे। कि देश और समाज में जो हो रहा है यह सही हो रहा है या गलत। और फिर अपने विचारों को दूसरे लोगों के सामने व्यक्त करे। और किससे जवाब मांगे। ऐसे ही सैकड़ों सवाल लेकर एक आम आदमी रोज सुबह उठता है। दिनभर गधे की तरह मेहनत करने के बाद रात को उन्हीं सवालों के साथ सो जाता है। बस इसी तरह उसकी जिन्दगी चल रही है। उसके अंदर क्रोध-गुस्सा बहुत है पर वो बाहर नहीं आ पाता क्योंकि उसके ऊपर इतनी सारी जिम्मेदारियां जो हैं। और उसके अलावा देश में सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई महंगाई, कालाबजारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और हमारे राजनेताओं की गन्दी राजनीति जो कि इस देश को बेचने तक के लिए तैयार बैठे हैं सिर्फ एक कुर्सी के लिए। उन्हें आम जनता के दुखों से कोई लेना देना नहीं है। रोज यही खबर टीवी और अखबारों में पढ़ता हूं कि आज वहां बम विस्फोट हो गया और उसमें इतने लोग मारे गए। लेकिन हमारे इन राजनेताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता और हमेशा इनका एक ही रटा-रटाया डायलोग होता है कि हमने उनको हरा दिया। हम उनके मंसूबे कभी कामयाब नहीं होने देंगे। अरे भाई उनके मंसूबे तो पूरे हो गए उनका उद्देश्य था बम विस्फोट करके निर्दोष लोगों को मारना और उन्होंने वो पूरा कर दिया। भला तुमने उनका कौन सा मंसूबा पूरा नहीं होने दिया। अब आम जनता भी इस बात को भलीभांति जानने लगी है। और मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब एक आम भारतीय सड़क पर उतर कर इन देशद्रोहियों को जूते मारेगा और हमारी आवाज को इन राजनेताओं को सुनना पड़ेगा। और हमारी आवाज से इस देश में परिर्वतन अवश्य होगा।
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