Tuesday, September 15, 2009

ये हैं गरीब देश के सांसद

इस गरीब देश के न प्रतिनिधियों ने जिनको हम सांसद कहकर शर्मिंदा होते हैं, गरीब जनता का खून चूसकर वसूले गए करों में से अपनी मौज मस्ती के लिए साढ़े तीन करोड़ खर्च कर दिए। अभी हाल ही में मीडिया में आई खबरों के बाद एस. एम. कृष्णा और उनके शशि थरूर को एक पाँच सितारा होटल छोड़ना पड़ा है लेकिन पिछले तीन महीने से सम्राट होटेल में ठहरे सांसदों पर 3 करोड़ 71 लाख रुपए खर्च हो चुके हैं। इस बिल का भुगतान शहरी विकास मंत्रालय करेगा। दिल्ली के सूचना अधिकार कार्यकर्ता सुभाष चन्द अग्रवाल द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई एक जानकारी में खुद सरकार ने शुलाया किया है कि 74 सासंद मई से जुलाई तक सम्राट होटेल में ठहरे थे। वैसे इस होटल में पर नाइट सुपर डीलक्स या डीलक्स सुइट का किराया 9000-8000 रुपए है। पर इन्हें 6000 रुपए की दर से दिया गया। इसके अलावा सांसदों ने होटल के जिम जिम से लेकर खाने और पीने में जमकर खर्च किया।

Wednesday, September 2, 2009

प्यार में फांसकर जिहादी बनाने की कोशिश

साभार : नवभारत टाईम्स २ सितम्बर २००९

Thursday, April 30, 2009

"प्रधानमंत्री, बता तो दीजिए, आप मुझसे क्यों भय खाते हैं?"


आम आदमी पूछता है

मैं साधारण सा भारतीय- आम आदमी हूं जिसे आप भूल गए हैं।
परन्तु मैं आपको नहीं भूला हूं। मुझे आपके 5 वर्षों की खूब याद है। जिससे मेरे मन में भारी आक्रोश है।
बताइए, मैं आपको प्रधानमंत्री क्यों बनाऊं?

- आप तो यह चुनाव भी नहीं लड़ रहे क्योंकि मैं जानता हूं कि आप कभी भी लोगों के सामने आने का साहस जुटा ही नहीं सकते।
- आप तो लोगों का जनादेश प्राप्त करने की बजाए मात्र प्रधानमंत्री के रूप में नामजद ही होना पसंद करते हैं।
- क्या आप मुझसे अपने 5 वर्षों के शासन के रिकार्ड को भुला देना चाहते हैं?
- आप ने तो भारत की बजाए विदेशों में घूमने में अधिक समय बिताया। भला बताइए, आपकी अनुपस्थिति में कौन राज-काज चलाता था?
- आप अपने को बड़ा भारी अर्थशास्त्री मानते हैं, परन्तु आपने तो देश की अर्थव्यवस्था ही डुबो कर रख दी।
- आप गरीब आदमी का वोट चाहते हैं, परन्तु आपने तो बहुत भारी संख्या में करोड़पति लोगों की उम्मीदवार बनाकर खड़ा कर दिया है।
- होना तो यह चाहिए था कि आप देश के निर्माण का कार्य कतरे, परन्तु आपने तो देश की राजमार्ग परियोजनाओं तक को बंद करके रख दिया।
- आपको तो देश का कर रक्षक बनना चाहिए था परन्तु आज हम यही देखते हैं कि हम लोगों को ही कोई भी हत्यारा हमारे घरों, बाजारों, होटलों और कहीं भी आकर हमारी हत्या कर देता है।
- आपने तो उन आतंकवादियों तक पर कार्रवाई नहीं की जो आए दिन नागरिकों और सैनिकों की हत्या करके चले जाते हैं। आपकी तो बस इतनी मंशा रह गई है कि हम अपनी इन हत्याओं के आदी बन जाएं।
- यह आपकी कमजोरी का ही नतीजा है कि नक्सलवादियों की संख्या निरंतर तेजी से बढ़ती चली जा रही है। वे जब चाहें मतदाताओं और सुरक्षा बलों पर हमला कर देते हैं परन्तु भला आपको इसकी परवाह ही कहां है।
- आपने बांग्लादेशी घुसपैठियों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया क्योंकि ये लोग असम और दिल्ली में अब भारी वोट बैंक बन गए हैं।
- आपने कभी भी हर भारतीय को न्याय नहीं दिलाया क्योंकि आप तो केवल एक ही समुदाय का पक्ष लेने में जुटे रहे हैं।
- आपने 1984 के सिखों के नरसंहार के लिए उनसे माफी मांगी परन्तु आपने देश से माफी मांगने में शर्म महसूस की। आपने भारतीयों से माफी नहीं मांगी।
- आपने ऐसे मंत्रियों को नियुक्त किया जिनमें से बहुत से लोगों का आपराधिक इतिहास था और वे अदालतों में अपने घिनौने आरोपों के लिए लांछित थे। आपने दंगे और बम विस्फोटों के पीड़ितों को न्याय के मामले में विलम्ब किया।
- आपने बड़े लम्बे चौडे वादे किये और फिर पूरा न कर पाने पर खेद प्रगट करते रहे। परन्तु इसके अलावा और तो कुछ आपने किया नहीं।
- आपने कभी भी हमसे दिल से बात तक नहीं की क्योंकि आप तो बस सदा ही लिखे भाषण पढ़ने में ही मशगूल रहे।
- आपको तो सार्वजनिक बहस से भी डर लगता है।
- आपके कैबिनेट मंत्री खुद अपनी सरकार के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। क्या इसी को 'ग्रांड एलाइंस' अर्थात् भव्य गठबंधन का नाम दिया जा सकता है।
- आपने परमाणु सौदे पर जल्दबाजी में हस्ताक्षर करने से पहले हमें उसकी शर्तें तक बताने में कोताही बरती। आज भी हमें इसके बारे में कुछ मालूम नहीं है।
- जब बिहार और गोवा के राज्यपालों ने लोकतंत्र की सारी मर्यादाएं तोड़ डाली तब भी आपने लोकतंत्र बचाने के लिए कुछ नहीं किया।
- आपको तो हजारों सैनिकों द्वारा अपने मैडल लौटाने पर भी कोई चिंता तक व्याप्त नहीं हुई।
- किसानों के लिए बहुत कुछ किये जाने के बड़े लम्बे चौड़े दांवों की बात कहने पर भी किसान आत्महत्याएं करते रहे, फिर भी उनके बारे में आपको जरा सी सुध तक नहीं आई।
- आपने हर कदम पर 'कुटुम्बवाद' की रक्षा कर लोकतंत्र की जानबूझ कर आहूति दे डाली।
- आपके अपने ही कैबिनेट मंत्रियों ने आपकी घोर उपेक्षा की। आप न तो किसी को नियुक्त कर सकते थे और न ही किसी को बर्खास्त कर सकते थे। ऐसे हर मंत्री ने सदा ही आपकी 'सुपीरियर पावर' का 10 जनपथ पर ही जाकर दरवाजा खटखटाया।
- आपने अपनी 'सुप्रीम नेता' के हाथ में सभी शक्तियों सौंप कर प्रधानमंत्री के सम्मान और अधिकार को गहरा आघात पहुंचाया।

और फिर भी आज आप उसी पद पर विराजमान होने की चाहत रखते है?
क्यों? क्या किसी ने फिर आपको कहा है कि आपको फिर से प्रधानमंत्री बनना है?
भले ही आप निष्ठा की छवि के पीछे अपना मुंह छुपा रहे हों, परन्तु मैं तो आपका असली चेहरा देख ही रहा हूं।


मैं आम आदमी हूं और मुझे किसी से भय नहीं लगता है।
प्रधानमंत्री, आप क्यों डर रहे हैं?
आपको किससे डर लग रहा है?मुझसे? हां, लगना भी चाहिए।

प्रशांत गोयल

Thursday, April 2, 2009

"वरूण गांधी का मामला"


वरूण गांधी का मामला



सन् 1937 और 2009 में क्या फर्क है?



- देवेन्द्र स्वरूप




बुधवार 25 मार्च को, रात्रि 9.00 बजे की खबरों में आई.बी.एन.-7 चैनल पर आशुतोष वरुण गांधी के बहाने भाजपा पर लाठी भांज रहे थे। वे, संदीप चौधरी और उनका संवाददाता चौराहे पर दवा बेचने वाले के लहजे में गला फाड़-फाड़कर बड़े भावुक अंदाज में वरुण और भाजपा की लानत-मलामत कर रहे थे। दोपहर में वे वरुण गांधी के वकील गोपाल चतुर्वेदी से इस आक्रामकता के साथ जिरह कर रहे थे मानो गोपाल चतुर्वेदी कठघरे में खड़े हों और आशुतोष उनके विपक्षी के वकील के नाते उनसे जिरह कर रहे हों। दोपहर और रात्रि में चैनल के तेवरों को देखकर लगता था कि हम किसी समाचार चैनल पर खबरें नहीं, किसी राजनीतिक दल का चुनाव-प्रचार देख-सुन रहे हैं। पीलीभीत लोकसभा चुनाव क्षेत्र में भाजपा के प्रत्याशी वरुण गांधी के भड़काऊ भाषण की कोई 'प्राइवेट सी.डी.' अचानक 15 मार्च को प्रगट हुई और तब से वरुण गांधी राजनीतिक दलों और मीडिया पर छा गये। उन्हें मुस्लिमविरोधी चित्रित किया जाने लगा। उन्हें चुनाव मैदान से हटाने की मुहिम शुरू हो गयी। 17 मार्च को उनके खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करायी गयी। उनके विरुध्द गैरजमानती वारंट जारी करने और गिरतार करने की मांग उठायी जाने लगी। बात उनके मुस्लिमविरोधी भाषण तक ही नहीं रुकी। उनको सिख विरोधी भी कहा गया। चार दिन बाद उस क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी ने एक नई सीडी जारी की, जिसमें वरुण को मतदाताओं के बीच पैसे बांटते हुए दिखाया गया। यह कांग्रेसी प्रत्याशी वरुण की ननसार से जुड़ा कोई सिख ही है। वरुण को चुनाव मैदान से हटाने के लिए सोनिया पार्टी चुनाव आयोग से गुहार लगाने लगी। प्रियंका और राहुल भी अपने चचेरे भाई की आलोचना के लिए मैदान में उतर आये। इससे साफ हो गया कि वरुण विरोधी अभियान में सोनिया परिवार की पारिवारिकर् ईष्या व वैमनस्य की अहम भूमिका है। सोनिया परिवार नहीं चाहता कि इन्दिरा गांधी वंश का कोई और चेहरा राजनीति में उनके एकाधिकार को चुनौती दे।

वरुण के बहाने
किन्तु वरुण गांधी विरोधी अभियान केवल सोनिया पार्टी तक सीमित नहीं है। सभी राजनीतिक दल इसे भुनाने में लग गये हैं और मीडिया का पूरी तरह उपयोग कर रहे हैं। उनके हमले का मुख्य लक्ष्य वरुण नहीं बल्कि भाजपा और हिन्दुत्व है। वे इस प्रकरण के बहाने भाजपा और हिन्दुत्व का हौव्वा खड़ा कर रहे हैं। शायद मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए हिन्दुत्व का आक्रामक व खूंखार चेहरा स्क्रीन पर दिखाना बहुत आवश्यक है। 1989 के चुनाव से रामजन्मभूमि आंदोलन का इस्तेमाल किया जाता था, 2002 से गुजरात के दंगों का इस्तेमाल किया जाने लगा। अब ये दोनों ही मुद्दे बेजान हो चुके हैं। गुजरात साम्प्रदायिक सद्भाव के साथ विकास के रास्ते पर अन्य सब राज्यों से आगे दौड़ रहा है। गुजरात का मुस्लिम समाज नरेन्द्र मोदी और भाजपा विरोधी प्रचार से ऊपर उठकर गुजरात सरकार के साथ खड़ा है। लेकिन मुस्लिम वोटों के बिना छोटे-बड़े छद्म सेकुलरों की चुनाव गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती और मुस्लिम वोटों को आक्रामक खूनी हिन्दुत्व का हौवा दिखाये बिना रिझाया नहीं जा सकता। किंकर्तव्यविमूढ़ता के इस वातावरण में वरुण गांधी के तथाकथित जहरीले मुस्लिमविरोधी भाषण की कोई सी.डी. आठ दिन बाद सेकुलरों के लिए वरदान बनकर आयी और वे उसे लेकर प्रचार अभियान में जुट गये। वरुण गांधी के खिलाफ वारंट निकल गये, उन्होंने इलाहाबाद और दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, अंतरिम राहत के लिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनको जमानत देने से इनकार कर दिया, जिसके विरुध्द उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है। इधर चुनाव आयोग ने उनके इस तर्क को ठुकरा दिया कि सी.डी. में उनके भाषण के साथ छेड़छाड़ की गयी है, उसमें 17 जगह छेड़खानी के निशान हैं। चुनाव आयोग के पास किसी प्रत्याशी को चुनाव मैदान से हटाने का कानूनी अधिकार न होने के कारण चुनाव आयोग ने भाजपा को सलाह दे डाली कि वह वरुण गांधी को प्रत्याशी न बनाये। किंतु भाजपा ने साफ कह दिया कि सी.डी. के साथ छेड़छाड़ का मामला न्यायालय के विचाराधीन है, अत: चुनाव आयोग को भाजपा को यह आदेश देने का अधिकार नहीं है कि वह वरुण गांधी को प्रत्याशी न बनाये, क्योंकि यह तो भाजपा विरोधियों की जीत होगी।

चुनावी षडयंत्र
एकाएक वरुण गांधी के एक भाषण को लेकर भारतीय राजनीति और मीडिया में जो उबाल आया उसके पीछे वोट बैंक राजनीति का कोई षडयंत्र अवश्य काम कर रहा है, इसकी पुष्टि 25 मार्च को ही एनडीटीवी चैनल पर गोरखपुर से भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के एक साल पुराने चुनावी भाषण की सीडी को दिखाने से हो गयी। एनडीटीवी का प्रस्तोता उस सी.डी. को दिखाते हुए स्क्रीन पर लिखी किसी इबारत को पढ़ता जा रहा था। उसने माना कि यह सी.डी. एक साल बाद पहली बार हमें प्राप्त हुई है। यह भाषण आजमगढ़ जिले की किसी चुनाव सभा में योगी आदित्यनाथ ने दिया बताते हैं। उस सी.डी. को गुप्त रूप से बनाने और एक साल बाद जारी करने का श्रेय आजमगढ़ के एक वकील मोहम्मद असद हयात को दिया गया। मो.असद हयात को लहराती हुई दाढ़ी के साथ स्क्रीन पर दिखाया गया। गोरक्षपीठ का इतिहास बताया गया। महंत अवैद्यनाथ को भी दिखाया गया। प्रस्तोता स्क्रीन पर लिखी जिस 'कमेन्ट्री' को पढ़ रहा था, उसे किसी समाचार चैनल की भाषा कहने के बजाए चुनावी भाषण कहना उचित होगा। उसमें कहा गया कि आजमगढ़ का मुसलमान बटला हाउस की मुठभेड़ के समाचार से पहले ही आहत है, उसे बिना-वजह बदनाम किया जा रहा है। टी.वी. पर भाजपा की मुस्लिम विरोधी छवि बनाने की कोशिश की जा रही थी। भाजपा विरोधी रंग को पक्का करने के लिए भाजपा के सांसद बलवीर पुंज से साक्षात्कार लिया गया। पुंज ने दो सवाल उठाये कि एक साल तक यह सीडी कहां थी और चुनाव के समय ही इसे क्यों दिखाया जा रहा है? सुबह से शाम तक वरुण गांधी के एक पुराने भाषण की विकृत सीडी को हर चैनल पर बार-बार दिखाने के पीछे क्या उद्देश्य हो सकता है? यदि आपको साम्प्रदायिक सौहार्द की इतनी ही चिंता है तो अभी एक सप्ताह पहले 15 मार्च को चंडीगढ़ में एक चुनावी रैली में सोनिया कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष इमरान किदवई ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अगर मैं मुती होता तो मैं फतवा जारी कर देता कि भाजपा को वोट देना कुफ्र है। कुरान की भाषा में कुफ्र का अर्थ इस्लाम विरोधी काफिर होता है। किदवई के इस भाषण के समय सोनिया कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेता-मोहसिना किदवई और पवन कुमार बंसल मंच पर मौजूद थे। भाजपा ने इस साम्प्रदायिक भाषण के विरुध्द चुनाव आयोग को लिखित शिकायत भेजी है। लेकिन न तो चुनाव आयोग ने कोई कार्रवाई की और न ही सोनिया कांग्रेस ने इमरान किदवई के उस जहरीले भाषण से अपने को अलग किया। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि जो टेलीविजन चैनल वरुण गांधी और योगी आदित्यनाथ के पुराने भाषणों की संदिग्ध सी.डी. के आधार पर मुस्लिम मतदाताओं को भाजपा के विरुध्द भड़काने में लगे हैं, वही इस सी.डी. के बारे में पूरी तरह खामोश हैं। इमरान ने अपने भाषण में कहा कि मुसलमान शरीयत के अलावा कोई अन्य निजी कानून नहीं मानेंगे और कांग्रेस ने हमें वचन दिया है कि शरीयत मुसलमानों का ईमान है, उसे कदापि नहीं बदला जाएगा। किदवई ने भारत की स्वतंत्रता का श्रेय भी गांधी और नेहरू की स्वतंत्रता पूर्व कांग्रेस को मुसलमानों के भारी समर्थन को दिया।

मुस्लिम राजनीति का इतिहास
इतिहास में इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? इतिहास साक्षी है कि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय से कांग्रेस के लाख कोशिश करने पर भी मुस्लिम समाज कांग्रेस अधिवेशनों में सम्मिलित नहीं हुआ। उस समय के तीन बड़े मुस्लिम नेताओं-सर सैयद अहमद खान, जस्टिस अमीर अली और लतीफ खान ने कांग्रेस को बंगाली हिन्दुओं की संस्था घोषित करके उसके बहिष्कार का आह्नान किया। 1937 के चुनाव में गांधी और नेहरू की कांग्रेस को 482 मुस्लिम सीटों में से केवल 25 सीटों पर सफलता मिली थी। इन परिणामों से चिंतित होकर कांग्रेस अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू ने मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान छेड़ा। इसके लिए कम्युनिस्ट प्रोफेसर के.एम.अशरफ के अधीन एक स्वतंत्र कक्ष स्थापित किया, किंतु पूरे भारत में कांग्रेस संगठन में मुस्लिम कार्र्यकत्ताओं के अभाव के कारण इस अभियान को और अशरफ के विभाग को बंद करना पड़ा। कांग्रेस ने मुसलमानों को आकर्षित करने के लिए कुरान के अधिकारी व्याख्याकार मौलाना अबुल कलाम आजाद को अपना अध्यक्ष चुना किंतु मुस्लिम समाज ने उन्हें हिन्दू कांग्रेस के एजेंट के रूप में देखा और कभी नमाज न पढ़ने वाले, सुअर का मांस खाने वाले, उर्दू में भाषण देने में अक्षम मुहम्मद अली जिन्ना को अपना नेता चुना, क्योंकि उन्होंने द्विराष्ट्रवाद की भाषा बोली, पाकिस्तान की मांग उठायी और उसे पाने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। दिसंबर, 1945 के चुनाव में केन्द्रीय असेम्बली में मुस्लिम लीग को सभी मुस्लिम सीटों पर विजय मिली। 1946 में प्रांतीय विधानसभा चुनावों में पंजाब की 86 मुस्लिम सीटों में से 79, बंगाल की 119 में से 113, सिंध की 35 में से 27, असम की 34 में से 31, बम्बई की 30 में से 30, मद्रास की 29 में से 29, उड़ीसा की 4 में से 4, सीपी और बरार की 14 में से 13, बिहार की 54 में से 34 और संयुक्त प्रांत की 66 में से 54 सीटें मुस्लिम लीग की झोली में गईं। गांधी की कांग्रेस राष्ट्रवाद की लहर के कारण 7 हिन्दू बहुल प्रांतों में भारी बहुमत से सत्ता में आई। उसे हिन्दुओं के 91.3 प्रतिशत मत मिले। पर राष्ट्रवाद की इस विजय को मुस्लिम समाज ने हिन्दू कांग्रेस की विजय के रूप में देखा और वह कांग्रेस शासन के प्रति शत्रुभाव से भर गया। उसकी इस कांग्रेस विरोधी भावना को भांपकर ही जिन्ना ने मोहम्मद इकबाल की सलाह की उपेक्षा करके अक्तूबर 1937 में मुस्लिम लीग अधिवेशन को लाहौर की बजाय लखनऊ में बुलाया। उसने गांधी को हिन्दू पुनरुत्थानवादी कहा और कांग्रेस राज को मुसलमानों पर हिन्दू राज थोपने की साजिश बताया। कांग्रेस के विरुध्द मुस्लिम संघर्ष को मुक्ति संघर्ष का नाम दिया।

वोट बैंक की खातिर
मुस्लिम आंखों में स्वतंत्रता के पूर्व जो स्थिति गांधी की अथवा कांग्रेस की थी, वही आज भारतीय जनता पार्टी की है। फर्क इतना है कि उस समय राष्ट्रवाद की भावना ने हिन्दू समाज को एकता के सूत्र में गूंथ दिया था और वह गांधी के नेतृत्व में एकजुट था। अब गांधी की कांग्रेस मर चुकी है और वोट बैंक राजनीति ने हिन्दू समाज को जाति, क्षेत्र और सत्तालोलुप व्यक्तियों के आधार पर बुरी तरह विभाजित कर दिया है। एक ताजा समाचार के अनुसार इस समय चुनाव आयोग के साथ 1900 से अधिक राजनीतिक दलों का पंजीकरण हो चुका है। इनमें से 54 दलों को राज्य स्तर पर और 7 दलों को राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दी गई है। इस सामाजिक विखंडन के फलस्वरूप मुस्लिम वोट बैंक सबसे बड़ा बनकर उभर आया है और प्रत्येक दल उन्हें रिझाने में लग गया है। जो मुस्लिम नेता राष्ट्रवाद के साथ खड़ा होता है उसे ये सत्तालोभी हिन्दू एजेंट घोषित कर देते हैं। भारतीय राष्ट्रवाद इनकी कृष्टि में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता है और मुस्लिम कट्टरवाद सेकुलर। गैर भाजपावाद ही उनकी गठबंधन राजनीति का एकमात्र आधार है। मुलायम सिंह, लालू यादव, रामविलास पासवान, मायावती, करुणानिधि आदि प्रत्येक राजनेता जो जातिवाद और क्षेत्रवाद की आधार भूमि पर खड़ा है, मुस्लिम कट्टरवाद की खुशामद करने में लगा है। मुलायम सिंह देवबंद के दारुल उलूम की चौखट पर नाक रगड़ रहे हैं, लालू और पासवान ओसामा बिन लादेन के हमशक्ल को चुनाव सभाओं में ले जाते हैं। सबसे दयनीय स्थिति तो कम्युनिस्टों की है, जो केरल में कांग्रेस-मुस्लिम लीग गठबंधन की काट के लिए केरल के आतंकवादी मुस्लिम नेता अब्दुल नाजिर मदनी की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के मुस्लिम नेताओं के साथ एक ही मंच पर बैठे रहे हैं। मदनी को लेकर माकपा के भीतर ही मतभेद गहरा हो गया है। मुख्यमंत्री अच्युतानंदन मदनी की जांच कराना चहाते हैं जबकि राज्य सचिव पिनराई विजयन उसे गले से लगाकर घूम रहे हैं। वे मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए सद्दाम और ओसामा के चित्रों का सहारा ले रहे हैं। बंगाल में नंदीग्राम के कारण मुसलमानों का बड़ा वर्ग वाममोर्चे से छिटककर तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़ा दिखता है, इसलिए कम्युनिस्टों को सत्ता खिसकती लग रही है। कम्युनिस्टों की कृष्टि में केवल भारतीय जनता पार्टी ही सांप्रदायिक है। जो दल जब तक भाजपा के साथ हैं तब तक उनके लिए साम्प्रदायिक व अछूत हैं, भाजपा से अलग होते ही वह 'सेकुलर' हो जाते हैं। सच तो यह है कि 1937 में संगठित राष्ट्रवाद का संघर्ष साम्राज्यवाद-पृथकतावाद गठबंधन से था तो इस समय उसे विघटनवाद व कट्टरवाद के गठबंधन से जूझना पड़ रहा है।
- साभार पांचजन्य

Wednesday, February 11, 2009

"आजादी एक चुनौती है"

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं। जवाहरलाल नेहरू ने 1947 में 14-15 अगस्त की मध्यरात्रि में 'भारत की नियति के साथ मिलन' का संदर्भ देते हुए कहा कि स्वाधीनता प्राप्ति के साथ ही हमें एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए काम करना होगा, जहां प्रत्येक बच्चे, महिला और पुरूषों को बेहतर स्वास्थ्य, भोजन, शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध हों।

भारत की आजादी के 61 वर्ष बीत गए। क्या पं नेहरू के उक्त संकल्प की दिशा में देश विकास की ओर अग्रसर है? आज विकास की दो दिशाएं दिखाई पड़ती है। एक है- इंडिया का विकास और दूसरा है- भारत का विकास। 'इंडिया' की अगुआई अंग्रेजियत में रंगे नौकरशाह, राजनेता, पूंजीपति और शहरी वर्ग के लोग कर रहे हैं, वहीं 'भारत' में समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े देश के 75 फीसदी गरीब, जो गांवों में रहते हैं, शामिल है। 'इंडिया' में लगातार बढ़ रहे 36 अरबपतियों की संख्या समाहित हैं तो 'भारत' में 77 करोड़ लोग, जिनकी आमदनी प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम है, शामिल है। असमानता की खाई इस कदर चौड़ी हो रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर श्री विमल जालान कहते है कि भारत के 20 सबसे अधिक धनवानों की आय 30 करोड़ सबसे गरीब भारतीयों से अधिक है। यही विषमता आज भारत की मुख्य समस्या है।

आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो देश के सामने अनेक चुनौतियां मुंह बाएं खड़ी हैं। दुनिया भर में सबसे अधिक अरबपतियों की संख्या के हिसाब से भारत चौथे स्थान पर है। वहीं ग्लोबल हंगर इंडेक्स में हम 94वें स्थान पर हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 27।8 अनुमानित था। लोगों की आय, स्वास्थ्य, शिक्षा के आधार पर तैयार किए जाने वाले मानव विकास सूचकांक में 2004 में 177 देशों की सूची में भारत का स्थान 126 वां था।

हमारी आबादी का दो-तिहाई हिस्सा अभी भी खेती पर ही आश्रित है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 20 प्रतिशत से भी कम हो गया है। 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पर हम आज भी खेती नहीं करते, जबकि इस जमीन पर जोत संभव है। गौरतलब है कि 38 मीलियन हेक्टेयर क्षेत्र पाकिस्तान, जापान, बांग्लादेश और नेपाल के कुल सिंचित क्षेत्र से भी ज्यादा है।

भारत सरकार का वर्ष 2007-2008 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि 1990 से 2007 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन 1।2 प्रतिशत कम हुआ है, जो कि जनसंख्या की औसतन 1।9 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोत्तरी की तुलना में कम है। इसके फलस्वरूप मांग और आपूर्ति में भारी अंतर है, जिसकी वजह से खाद्य संकट की आशंका बराबर बनी रहती है। 1990-91 में अनाजों की खपत प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 468 ग्राम थी जो कि 2005-2006 में प्रतिदिन 412 ग्राम प्रति व्यक्ति हो गई है। केन्द्र सरकार यह बात स्वीकार कर चुकी है कि हर साल लगभग 55,600 करोड़ रुपये का खाद्यान्न उचित भंडारन आदि न होने के कारण नष्ट हो जाता है।

हालात ऐसे हो गए हैं कि कृषि प्रधान देश भारत में 40 प्रतिशत किसान, खेती छोड़ना चाहता है। पिछले 10 वर्षों में 80 लाख लोगों ने खेती-किसानी छोड़ी है। एक आकलन के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार या तो भूमिहीन, उपसीमांत, सीमांत किसान है या छोटे किसान है। भारत की आजादी के 61 वर्षों बाद भी लगभग 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी साहूकारों पर निर्भर रहते हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे हमें बताता है कि किसानों की ऋणग्रस्तता पिछले एक दशक में लगभग दोगुनी हो गई है। देश के ४८.60 फीसदी किसान कर्ज के तले दबे हुए हैं। हर किसान पर औसतन 12,585 रू। का कर्ज है। भारतीय किसान परिवार का औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 302 रुपए है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 1993 से अब तक करीब 1,12,000 किसान आत्महत्या कर चुके है।

आंकड़े बताते हैं कि प्रति व्यक्ति मिलने वाला अनाज घट गया है। इसका असर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर भी दिखाई देता है। वर्ष 2005-2006 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे में कहा गया है कि देश में 5 साल से कम उम्र के बच्चे शारीरिक रूप से अविकसित हैं और इसी उम्र के 43 फीसदी बच्चों का वजन (उम्र के हिसाब से) कम है। इनमें से 24 फीसदी शारीरिक रूप से काफी ज्यादा अविकसित हैं और 16 फीसदी का वजन बहुत ही ज्यादा कम है। देश में 15 से 49 साल की उम्र के बीच की महिलाओं का बॉडी मांस इंडेक्स (बीएमआई) १८।5 से कम है, जो उनमें पोषण की गंभीर कमी की ओर इशारा करता है और इन महिलाओं में से 16 फीसदी तो बेहद ही पतली हैं। इसी तरह देश में 15 से 49 साल की उम्र के 34 फीसदी पुरुषों का बीएमआई भी 18.5 से कम है और इनमें से आधे से ज्यादा पुरुष बेहद कुपोषित हैं। देश में कुपोषण के शिकार बच्चे की स्थिति के मामले में हमारा देश नीचे से 10 वें नंबर पर है।

सुगठित शिक्षा व्यवस्था राष्ट्रीय विकास की धुरी होती है लेकिन देश में शिक्षा-व्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है। भारत में 300 से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं पर उनमें से केवल दो ही हैं जो विश्व में पहले 100 में स्थान पा सकें। सन् 2005 में विश्वबैंक के अध्ययन में पता चला था कि हमारे देश में 25 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के अध्यापक तो काम पर जाते ही नहीं हैं। पिछले दिनों नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि इस देश के 42 हजार स्कूल ऐसे भी हैं, जिनका अपना कोई भवन ही नहीं है। देश के 32 हजार विद्यालयों में शिक्षक नहीं है। अमेरिका में कुल बजट का 19।9 प्रतिशत, जापान में 19।6 प्रतिशत, इंग्लैंड में 13.9 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता है। जबकि भारत में शिक्षा पर बजट का मात्र 6 प्रतिशत भाग खर्च किया जाता है। शिक्षा पर केंद्र सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 3.54 फीसद और कुल सकल उत्पाद का 0.79 फीसद खर्च करती है जबकि राज्य सरकारें 2.73 फीसद खर्च करती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूल जाने वालों में 40 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट होते हैं और 42 प्रतिशत कुपोषण के शिकार। देश के 63 प्रतिशत बच्चे 10वीं कक्षा से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। एक आकलन के मुताबिक भारत के मात्र 10 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है जबकि विकसित राष्ट्रों के 50 फीसद युवाओं को उच्च शिक्षा मिलती है। विदेशों में विज्ञान और तकनीकी शिक्षा ले रहे भारतीय छात्रों में से 85 फीसद वतन लौट कर नहीं आते।

इराक के बाद भारत सर्वाधिक आतंकवाद का दंश झेल रहा है। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चिंता व्यक्त की कि देश में आतंकवादियों के 800 से ज्यादा ठिकाने है। भारत में अब तक हुए आतंकवादी हिंसा में 70,000 से अधिक बेगुनाहों के प्राण चले गए, जबकि पाकिस्तान तथा चीन के साथ जो युध्द हुए हैं, उनमें 8,023 लोगों की मौतें हुई। गृह मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2007 में नवंबर के अंत तक नक्सली हिंसा की 1385 घटनाएं हुईं, जिसमें 214 पुलिस कार्मिक व 418 नागरिक मारे गए, वहीं 2006 में 1389 घटनाएं हुईं, जिसमें 133 पुलिस कार्मिक व 501 लोग मारे गए। इस समय माओवादियों का प्रभाव 16 राज्‍यों में है। देश के 604 जिलों में 160 जिले पर माओवादियों या नक्सलवादियों का कब्जा है। देश का 40 प्रतिशत भू-भाग नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित है। पूर्वोत्तर की स्थिति चिंताजनक है। वर्ष 2007 में यहां 1489 हिंसक घटनाएं हुई, जिनमें 498 सामान्य नागरिक आंतकवादी हिंसा के शिकार हुए।

हमारी शासन प्रणाली मुकदमेबाजी को बढ़ावा दे रही है। भ्रष्टाचार का महारोग देश को आगे बढ़ने में बाधित कर रहा है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल संस्था के अनुसार दुनिया के 172 देशों में भारत भ्रष्टाचार के 72वें पायदान पर है। अलगाववादी प्रवृतियां राष्ट्रीय एकता को चुनौती दे रहा हैं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का विषवेल समाज को नुकसान पहुंचा रहा है। मीडिया के माध्यम से सहज ही पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण हो रहा है। जातिवाद, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न कर रहा है। घुसपैठ आंतरिक सुरक्षा को तार-तार कर रहा है। 2।5 करोड़ बंगलादेशी घुसपैठियों के कारण देश पर 90 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। 13 प्रतिशत को छू रही महंगाई की दर लोगों का जीना मुहाल कर रही है। वहीं बेरोजगारों की संख्या लगभग 25 से 30 करोड़ है। हर साल 3।5 से 4 करोड़ नए रोजगार ढूढने वाले जुड़ रहे है। इस गंभीर समस्या का निदान होना अत्यंत जरूरी है।

पूर्व राष्ट्रपति डॉ। एपीजे अब्दुल कलाम ने विजन 2020 की अवधारणा देश के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा था कि वर्ष 2020 का भारत एक ऐसा देश हो, जिसमें ग्रामीण एवं शहरी जीवन के बीच कोई दरार न रहे। जहां सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो और देश का शासन जिम्मेदार, पारदर्शी और भ्रष्टाचारमुक्त हो। जहां गरीबी, अशिक्षा का कोई अस्तित्व न हो और देश महिलाओं एवं बच्चों के प्रति होनेवाले अपराधों से मुक्त हो।

राष्ट्रीय समृध्दि विरासत में नहीं मिलती, उसे बनाना पड़ता है। सिर्फ सरकार के भरोसे देश का विकास सुनिश्चित नहीं होगा। भारत आज एक युवा राष्ट्र है। इस समय 70 प्रतिशत से अधिक लोग 35 साल से कम उम्र के हैं। देश को समृध्दशाली बनाने की चुनौती युवाओं को स्वीकार करनी होगी, समस्याओं को कोसने के बजाए सार्थक हस्तक्षेप के लिए आगे आना होगा, तभी सही मायने में आजादी सार्थक होगी।

Friday, February 6, 2009

"मुस्लिम वोट की खातिर कहां तक गिरोगे"

राष्ट्रविरोधी ताकतें हिन्दुओं के मन में भय और दहशत का माहौल कायम कर रहे हैं। वे अमरनाथ यात्रियों पर पत्थर बरसा रहे है। 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों ने श्रीनगर के लाल चौक में पाकिस्तान का झंडा फहराया, जिन बोर्डों व होर्डिंग पर 'भारत या इंडिया' लिखा था उन्हें तहस-नहस कर दिया।

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन देने के मामले का राजनीतिकरण करने और अमरनाथ यात्रा को भंग करने के उद्देश्य से कश्मीर घाटी में हिंसा फैलाने के विरोध में जम्मू में विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद समेत अनेक राष्ट्रवादी संगठनों के आह्वान पर जम्मू बंद का सफल आयोजन हुआ, जिसमें बढ़-चढ़कर लोगों ने हिस्सा लिया।

उल्लेखनीय है कि मुस्लिम वोटों के खिसकने के चक्कर में जम्मू-कश्मीर के प्रमुख राजनीतिक दल नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी ज़मीन के हस्तांतरण का विरोध कर रही है, जबकि भारतीय जनता पार्टी इस भूमि आवंटन के पक्ष में है। प्रारंभ में कांग्रेस भी भूमि आवंटन के पक्ष में थी लेकिन अब वह भी राज्य में तुष्टिकरण की राजनीति को हवा देने में जुट गई है। सवाल यह है कि आखिर वोट के लिए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल कहां तक नीचे गिरेंगे? वोट के लिए देश को दांव पर लगाना उचित है?

सुविदित है कि पवित्र अमरनाथ गुफा दर्शन के लिए हर साल हज़ारों श्रध्दालु पहुँचते हैं। अलगाववादी नेता यह सवाल उठा रहे है कि अमरनाथ यात्रा में इतने लोगों को क्यों शरीक होना चाहिए। अलगाववादियों को यह समझ लेना चाहिए कि पूरा देश एक है और किसी को कहीं भी आने-जाने का अधिकार है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन दिए जाने के मुद्दे पर अलगाववादियों द्वारा कश्मीर घाटी में जो प्रदर्शन आयोजित किए जा रहे है, उसके पीछे पाकपरस्त ताकतों का हाथ है। अजीब विडंबना है कि जब सरकार हज यात्रा के लिए छूट देती है तो अमरनाथ यात्रियों को सुविधा देने पर बवाल क्यो? पूरे भारत में हज यात्रियों के लिए बने स्थाई केन्द्रों से प्रदूषण नहीं फैलता, परंतु अमरनाथ यात्रियों के लिए की जा रही व्यवस्था से प्रदूषण फैलने का आरोप लगाना निहायत बेवकूफी भरा है। श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के पक्ष में जमीन हस्तांतरण के मुद्दे पर अलगाववादियों ने जिस तरह का राष्ट्रविरोधी रवैया अपनाया है, यदि इसके विरूध्द तत्काल सख्त कदम नहीं उठाए गए तो तो इसके भयंकर परिणाम हो सकते है।

"साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार"

दुनिया भर के प्रमुख विचारकों ने भारतीय जीवन-दर्शन एवं जीवन-मूल्य, धर्म, साहित्य, संस्कृति एवं आध्यात्मिकता को मनुष्य के उत्कर्ष के लिए सर्वोत्कृष्ट बताया है, लेकिन इसे भारत का दुर्भाग्य कहेंगे कि यहां की माटी पर मुट्ठी भर लोग ऐसे हैं, जो पाश्चात्य विचारधारा का अनुगामी बनते हुए यहां की परंपरा और प्रतीकों का जमकर माखौल उड़ाने में अपने को धन्य समझते है। इस विचारधारा के अनुयायी 'कम्युनिस्ट' कहलाते है। विदेशी चंदे पर पलने वाले और कांग्रेस की जूठन पर अपनी विचारधारा को पोषित करने वाले 'कम्युनिस्टों' की कारस्तानी भारत के लिए चिंता का विषय है। हमारे राष्ट्रीय नायकों ने बहुत पहले कम्युनिस्टों की विचारधारा के प्रति चिंता प्रकट की थी और देशवासियों को सावधान किया था। आज उनकी बात सच साबित होती दिखाई दे रही है। सच में, माक्र्सवाद की सड़ांध से भारत प्रदूषित हो रहा है। आइए, इसे सदा के लिए भारत की माटी में दफन कर दें।

कम्युनिस्टों के ऐतिहासिक अपराधों की लम्बी दास्तां है-

• सोवियत संघ और चीन को अपना पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने की मानसिकता उन्हें कभी भारत को अपना न बना सकी।

• कम्युनिस्टों ने 1942 के 'भारत-छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों का साथ देते हुए देशवासियों के साथ विश्वासघात किया।

• 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन की तरफदारी की। वे शीघ्र ही चीनी कम्युनिस्टों के स्वागत के लिए कलकत्ता में लाल सलाम देने को आतुर हो गए। चीन को उन्होंने हमलावर घोषित न किया तथा इसे सीमा विवाद कहकर टालने का प्रयास किया। चीन का चेयरमैन-हमारा चेयरमैन का नारा लगाया।

• इतना ही नहीं, श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने शासन को बनाए रखने के लिए 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने विरोधियों को कुचलने के पूरे प्रयास किए तथा झूठे आरोप लगातार अनेक राष्ट्रभक्तों को जेल में डाल दिया। उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी श्रीमती इंदिरा गांधी की पिछलग्गू बन गई। डांगे ने आपातकाल का समर्थन किया तथा सोवियत संघ ने आपातकाल को 'अवसर तथा समय अनुकूल' बताया।

• भारत के विभाजन के लिए कम्युनिस्टों ने मुस्लिम लीग का समर्थन किया।

• कम्युनिस्टों ने सुभाषचन्द्र बोस को 'तोजो का कुत्ता', जवाहर लाल नेहरू को 'साम्राज्यवाद का दौड़ता कुत्ता' तथा सरदार पटेल को 'फासिस्ट' कहकर गालियां दी।

ये कुछ बानगी भर है। आगे हम और विस्तार से बताएंगे।

भारतीय कम्युनिस्ट भारत में वर्ग-संघर्ष पैदा करने में विफल रहे, परंतु उन्होंने गांधीजी को एक वर्ग-विशेष का पक्षधर, अर्थात् पुजीपतियों का समर्थक बताने में एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया। उन्हें कभी छोटे बुर्जुआ के संकीर्ण विचारोंवाला, धनवान वर्ग के हित का संरक्षण करनेवाला व्यक्ति तथा जमींदार वर्ग का दर्शन देने वाला आदि अनेक गालियां दी। इतना ही नहीं, गांधीजी को 'क्रांति-विरोधी तथा ब्रिटीश उपनिवेशवाद का रक्षक' बतलाया। 1928 से 1956 तक सोवियत इन्साइक्लोपीडिया में उनका चित्र वीभत्स ढंग से रखता रहा। परंतु गांधीजी वर्ग-संषर्ष तथा अलगाव के इन कम्युनिस्ट हथकंडों से दुखी अवश्य हुए।

साम्यवाद (Communism) पर महात्मा गांधी के विचार-

महात्मा गांधी ने आजादी के पश्चात् अपनी मृत्यु से तीन मास पूर्व (25 अक्टूबर, 1947) को कहा-

'कम्युनिस्ट समझते है कि उनका सबसे बड़ा कत्तव्य, सबसे बड़ी सेवा- मनमुटाव पैदा करना, असंतोष को जन्म देना और हड़ताल कराना है। वे यह नहीं देखते कि यह असंतोष, ये हड़तालें अंत में किसे हानि पहुंचाएगी। अधूरा ज्ञान सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है। कुछ ज्ञान और निर्देश रूस से प्राप्त करते है। हमारे कम्युनिस्ट इसी दयनीय हालत में जान पड़ते है। मैं इसे शर्मनाक न कहकर दयनीय कहता हूं, क्योंकि मैं अनुभव करता हूं कि उन्हें दोष देने की बजाय उन पर तरस खाने की आवश्यकता है। ये लोग एकता को खंडित करनेवाली उस आग को हवा दे रहे हैं, जिन्हें अंग्रेज लगा लगा गए थे।'

Friday, January 30, 2009

हिन्दी पत्रकारिता के भविष्य की दिशा: डा. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी।पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।

परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।

परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।

जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।

जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।

जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।

अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है।

एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण्ा अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं।

यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।

हितचिन्‍तक से साभार

यह आम भारतीय की आवाज है यानी हमारी आवाज...