क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है?(12)
अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 12-11-2011
आज मैं चर्चा करूंगा शत्रु सम्पत्ति विधेयक की। शत्रु सम्पत्ति विधेयक को लेकर जिस तरह से साम्प्रदायिक राजनीति की गई वह काफी अशोभनीय रही। हाल ही में संसद की गृह मंत्रालय की स्थायी समिति ने शत्रु सम्पत्ति विधेयक को एक मत से नामंजूर कर दिया। इसकी पुरजोर वकालत कर रहे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और विधि मंत्री सलमान खुर्शीद के लिए यह करारा झटका है। संसदीय समिति ने राजा महमूदाबाद एम.के. मुहम्मद खान का पक्ष भी सुना, जो सुप्रीम कोर्ट में शत्रु सम्पत्ति मामले में याचिकाकर्ता थे।
दरअसल गृह मंत्रालय विधेयक में किए गए बदलावों पर समिति को स्पष्टीकरण देने में विफल रहा। विधेयक पर संसदीय समिति का फैसला वैसे तो देश भर की शत्रु सम्पत्तियों से जुड़ा है, लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर उत्तर प्रदेश पर होगा। वहां राजा महमूदाबाद विभाजन के समय अपने पिता के पाकिस्तान चले जाने के बाद शत्रु सम्पत्ति के तहत गई भारी-भरकम जायदाद हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस के उम्मीदवार थे। पूर्व में अदालत में उनके इस मामले को चिदम्बरम एवं खुर्शीद कानूनी सलाह भी दे चुके हैं। भाजपा सांसद वेंकैया नायडू की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट गुरुवार को राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी को सौंप दी है। रिपोर्ट सभी दलों की आम राय से मंजूर की गई है, जिसमें कांग्रेस के दस सांसद भी शामिल हैं। समिति ने सिफारिश की है कि सरकार उसके सुझावों के मुताबिक मौजूदा विधेयक की जगह नया विधेयक लेकर आए। समिति ने कहा है कि हजारों करोड़ रुपए की शत्रु सम्पत्ति उन लोगों के हाथ में नहीं जानी चाहिए,जिनका उस पर वैधानिक हक नहीं है। भारत नीति प्रतिष्ठान के अनुसार लोकनीति का उद्देश्य राष्ट्रीय हित होता है। यह संकीर्णताओं से ऊपर होता है। न्यायालय या जनमत इसे जरूर प्रभावित करता है परन्तु कार्यपालिका एवं विधायिका से ऐतिहासिक, सामाजिक एवं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के संदर्भ में कार्य करने की अपेक्षा की जाती है। दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में ऐसी अनेक प्रवृत्तियों की उत्पत्ति हुई है जिनसे लोकनीतियों एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं का अवमूल्यन हो रहा है। इसी का उदाहरण वर्तमान विवाद है। भारत सरकार के ही दो मंत्री गृहमंत्री पी. चिदम्बरम एवं विधि, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद, इस विषय पर एक-दूसरे का प्रतिवाद करते रहे। गृह मंत्रालय की दृढ़ता को तोडऩे के लिए जिस राजनीतिक ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया गया वह दशकों से भारत की राजनीति एवं नीति निर्धारकों को कमजोर करती रही है। यह है अल्पसंख्यक हित के नाम पर लोकनीतियों को पुनर्परिभाषित करने के लिए दबाव। यही हुआ शत्रु सम्पत्ति अधिनियम के संबंध में। कुलीनों ने अपनी राजनीति को जमीन पर उतार कर इसे 'मुस्लिम मुद्दा' बना दिया। कार्यपालिका के विवेक एवं तर्क का स्थान क्रमश: संकीर्णता एवं भावना ने ले लिया। मुस्लिम सांसदों ने एकजुट होकर शत्रु सम्पत्ति अधिनियम से जुड़े पक्षों को मुस्लिम विरोधी बताया और राजनीति में वही परम्परागत साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण इस विषय पर भी हो गया।
विभाजन के बाद लाखों लोगों ने भारत-पाक की सीमा लांघी थी। स्वाभाविक है कि लोगों की राष्ट्रीयता भी बदली। ऐसे शरणार्थियों की सम्पत्तियों को भारत एवं पाकिस्तान की सरकारों ने अधिग्रहण कर Custodian के अन्तर्गत कर दिया। उन लोगों को भी पाकिस्तान छोडऩे के लिए बाध्य किया जो ऐसा ही चाहते थे। इसी क्रम में भारत में Evacuee Property Act आया था। पाकिस्तान एवं बाद में बंगलादेश ने शत्रु सम्पत्तियों को अपनी-अपनी अर्थव्यवस्था के ढांचे में उपयोग कर लिया। भारत में व्यवस्था की कमजोर इच्छा-शक्ति ने इसे गैर कानूनी कब्जे एवं किरायेदारों के हवाले कर दिया। साठ के दशक तक इन सम्पत्तियों को शत्रु सम्पत्ति नहीं माना गया। जो लोग इसे मुस्लिम प्रश्न मानते हैं उन्हें शत्रु सम्पत्ति का या तो ज्ञान नहीं है या वे जानबूझकर तथ्यों को अनदेखा कर रहे हैं।
शत्रु सम्पत्ति की अवधारणा भारत में 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद आई जब शत्रु राष्ट्र से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़े सक्रिय लोगों की सम्पत्ति सरकार ने अधिग्रहित कर ली। फिर पाकिस्तान के साथ 1965 में युद्ध हुआ। स्वाभाविक था जो भारत-चीन युद्ध के समय हुआ था वही नीति दुहराई गई। तभी 1968 में शत्रु सम्पत्ति अधिनियम आया। राजा महमूदाबाद 1958 में स्वेच्छा से पाकिस्तान गए थे। उनकी सम्पत्ति को शत्रु सम्पत्ति के तहत अधिग्रहित कर लिया गया। इसे अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक प्रश्र मानना देश की नीति निर्धारण प्रक्रिया को भ्रमित एवं कमजोर करना है, परन्तु सरकार ने इसी कमजोरी का परिचय देते हुए अपने ही द्वारा लाए गए पहले विधेयक को निरस्त कर नया विधेयक तैयार किया। द्वितीय शत्रु सम्पत्ति (संशोधन और विधिमान्यकरण) विधेयक 2010, जो साम्प्रदायिक राजनीति के दबाव में तैयार किया गया विधेयक है। नीति का गलत या सही होना उतना दुष्परिणामकारी नहीं होता है जितना कि संकीर्णतावादी ताकतों के दबाव में उसका निर्माण करना होता है। राष्ट्रीयता से जुड़ा यह कानून अपरिवर्तनीय होना चाहिए था। न्यायालय ने इसे घसीटकर साम्प्रदायिकता के दायरे में ला खड़ा कर दिया है। (क्रमश:)
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