क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है?(1)
अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 01-11-2011
जीवन में कभी-कभी अतीत की गहराई में झांकना बड़ा ही अच्छा लगता है और सुखप्रद भी। यहां यह बात मैं राष्ट्रों के अतीत के संदर्भ में कह रहा हूं। भारतवर्ष के जिस तंत्र में हम रह रहे हैं और मूर्खतावश जिसे 'प्रजातंत्र' कहते हैं वह आजादी के पांच दशकों बाद कैसा सिद्ध हुआ है, इस पर यहां मैं टिप्पणी नहीं करना चाहता।
मैं त्रेतायुग के काल से इस राष्ट्र की विभिन्न शासन प्रणालियों का अध्ययन पिछले दिनों कर रहा था। इसी क्रम में कुछ ऐसे तथ्यों की जानकारी मिली जिन्हें न केवल मैं पाठकों के साथ सांझा करना चाहता हूं, अपितु मेरी मंशा है कि हम कुछ बातों की प्रासंगिकता आज के युग में भी जानें। यह बात सत्य है कि श्रीराम को परिस्थितिवश बनवास जाना पड़ा, फिर भी ज्येष्ठ दशरथनंदन होने के नाते महाराज दशरथ यह देखकर चिंतित थे कि श्रीराम चिंता में हैं। कुछ प्रश्र उनके मन में उमड़-घुमड़ कर आते हैं और उन्हें व्यथित कर जाते हैं। यथासम्भव उन्होंने स्वयं भी उनका निराकरण किया और बाद में महर्षि वशिष्ठ को विस्तार से सारी बात बताई। श्रीराम और महर्षि वशिष्ठ में एक लम्बा वार्तालाप हुआ। आज परम सौभाग्य की बात यह है कि इन सभी वार्तालापों सम्पूर्ण वृतांत 'योग वशिष्ठ' मूलत: संस्कृत में उपलब्ध ग्रंथ तो है ही, उसके कुछ अच्छे भाष्य भी उपलब्ध हैं।
आज इसे धार्मिक ग्रंथ की संज्ञा दी जाती है। योगशास्त्र का अद्भुत ग्रंथ भी माना जाता है, वैराग्य की भी बहुत सी बातें इसमें हैं परन्तु एक राजा का क्या कर्त्तव्य होना चाहिए, उसमें ऐसा सब कुछ निहित है। 'योग वशिष्ठ' अनुपम है किसी अन्य कृति से इसकी तुलना नहीं की जा सकती।
ठीक इसी प्रकार महाभारतकाल में एक अंधे राजा ने जब यह देखा कि उसकी विदुषी पत्नी ने भी आंखों पर पट्टी बांध ली और सारे के सारे राजकुमार नालायक निकल गए तो उस राजा ने विदुर जी को निमंत्रण दिया।
एक छोटा परन्तु बड़ा सारगर्भित ग्रंथ प्रकट हुआ। हम उसे कहते हैं-विदुर नीति।
भावी घटनाएं कुछ और थीं, वरना धृतराष्ट्र का यह प्रयास स्तुत्य था।
अब शिवाजी राजे की बात।
भारतवर्ष में हिन्द-पद-पादशाही का स्वप्न पूरा हुआ। शिवाजी महाराज को दिव्य निर्देश तो मिले,परन्तु उससे पहले एक अद्भुत कृति का प्राकट्य हुआ।
उसका नाम है- दास बोध। मनुष्य को स्वयं को अपनी पूर्णता में समझ पाने की वह अद्भुत कृति है। उसका आशय क्या है, क्या आप जानना चाहेंगे। आशय है :
'इक बहाना था जुस्तजु तेरी
दरअसल थी, मुझे खुद अपनी तलाश।'
दास बोध अद्भुत है। समर्थ गुरु रामदास जी ने अपने प्रिय शिष्य शिवा की झोली में 'दास बोध'डाला और शिवाजी ने समस्त राजपाट उन्हें समर्पित कर दिया और 'राजध्वज' को भगवे में रंग दिया और नारा लगा 'जय-जय-जय रघुवीर समर्थ।
इस श्रृंखला में कौटिल्य को कैसे भूलें।
अर्थशास्त्र का एक-एक वचन चीख-चीख कर कह रहा है कि इससे उत्कृष्ट रचना पिछले हजारों वर्षों में नहीं रची गई। योग वशिष्ठ, विदुर नीति, दास बोध और अर्थशास्त्र, सब कुछ हमारे पास था, फिर भी हम सदियों गुलाम रहे क्योंकि हम अपनी जड़ों से कट गए।
आज इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है। जिस राह पर हम चल रहे हैं वह सिवाय 'विध्वंस' के हमें कहां ले जाएगी?
कारण क्या है? कारण एक ही है कि 'गोरे अंग्रेजों' के हाथ से निकल कर राष्ट्र काले अंग्रेजों के हाथ में चला गया। यह सारे के सारे 'मैकाले' के मानसपुत्र थे। इन्होंने भारत को इसकी जड़ों से काट दिया।
'धर्मनिरपेक्षता' नामक शब्द भारत के माथे पर कोढ़ बनकर उभरा। यह आज भी इस राष्ट्र के लिए कलंक है। धर्म के प्रति न तो आज तक कोई निरपेक्ष हो सका है और न ही भविष्य में होगा क्योंकि धर्म चेतना का विज्ञान है, अत: यह हमेशा एक ही रहता है, दो नहीं हो सकता।
क्षमा, दया, शील, सच्चरित्रता यह धारण करने योग्य हैं, अत: जो इन्हें धारण करता है वही धार्मिक है, जो निरपेक्ष है, वह बेईमान है। अपने संस्कारों को अक्षुण्ण रखते हुए धार्मिक रहा जा सकता है।
भगवान कृष्ण ने गीता में कहा-
'स्वधर्मे निधनं श्रेयम्।'
इसका एक ही आशय है, अपनी निजता न खोओ।
अपने धर्म में मृत्यु भी श्रेयस्कर है। ढोंगी न बनो। ढोंगी को तो नरक में भी जगह नहीं मिलती। भारत में सर्वधर्म समभाव के प्रणेता प्रकट हो गए। राजनीति ने ऐसा कलुष पैदा किया। भगवान कृष्ण ने कहा-अपना धर्म श्रेष्ठ, परन्तु किसी की विचारधारा का अनादर न करो। इन बेइमान पाखंडियों को देखो, जो सवेरे मजारों पर चादर चढ़ाते हैं, दोपहर को मंदिरों में जाते हैं, शाम को चर्चों में जाकर भाषण देते हैं तथा रात में गुरुद्वारे जाकर सिरोपा लेते हैं।
ऐसा लगता है, इन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो गया?
सावधान! ये पहले दर्जे के पाखंडी हैं। यह ढोंग कर रहे हैं, जो राजनेता परमहंसों जैसा आचरण करे उसे क्या कहेंगे?
भारत के एक राज्य कश्मीर से चुन-चुन कर 'हिन्दुओं' को खदेड़ दिया गया था। यह राष्ट्र का बहुसंख्यक समाज है, यह अपने अभिन्न अंग में नहीं रह सकता। इनकी रक्षा का प्रबंध यह सरकार नहीं कर सकी क्योंकि सारी की सारी सरकारें 'धर्मनिरपेक्ष' हैं और पंडितों के लिए न्याय मांगने वाले साम्प्रदायिक करार दिए जाते रहे।
अगर सच कहना बगावत है, तो समझो हम भी बागी हैं।'
इस सम्पादकीय में मैं बहुत सारे सवाल उठाऊंगा। इतिहास के कुछ पन्नों का सहारा लेकर अपनी बात को स्पष्ट करूंगा कि इस हिन्दुस्तान में हिन्दुओं से कैसा व्यवहार होता रहा है। सिर्फ आज वोट बैंक की राजनीति की जा रही है। वोटों की खातिर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की नीतियां जारी हैं। आज मनमोहन सरकार कठघरे में खड़ी है और इतिहास का काल पुरुष सरकार से पूछता है- क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है? (क्रमश:)
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