क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है?(7)
अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 07-11-2011
भारत में सरकारें बदलती रहीं। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गठबंधन होते रहे, सरकारें बनती रहीं। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बाद देश में ही नहीं देश के बाहर भी यह संदेश भेजने की प्रक्रिया का सूत्रपात किया गया कि अटल जी की सरकार एक साम्प्रदायिक किस्म की सरकार थी, अब यहां धर्मनिरपेक्ष सरकार का वर्चस्व हो चुका है। धर्मनिरपेक्षता क्या है इसकी कानूनी या संवैधानिक व्याख्या आज तक नहीं हो सकी। कानून का नया विद्यार्थी भी जब भारत में संविधान की ओर एक विहंगम दृष्टि डालता है तो पाता है कि संवैधानिक दृष्टिकोण से भारत में 1976 से पूर्व धर्मनिरपेक्षता नहीं थी। भारत के संविधान के नीति निर्देशक तत्व या अधिकारों से सर्वधर्म समभाव झलकता था कि नहीं, मैं इस बहस में नहीं पडऩा चाहता पर यह शब्द धर्मनिरपेक्ष 42वें संशोधन के बाद प्राक्कथन में आया।
मैं आगे बढऩे से पहले दो और प्रमाणों को पेश करना चाहूंगा। एक और प्रकरण शायरा बानो नाम की मुस्लिम महिला का है, जिसने अपने एवं अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा 1987 (ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 1107) में खटखटाया। न्यायालय ने शाहबानो बेगम के केस का उदाहरण देते हुए भरण-पोषण का आदेश दिया। एक और मामला 11 मई, 1995 में उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय का है। एक हिन्दू महिला जिसके पति ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर दूसरी शादी कर ली थी, की याचिका पर निर्णय सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि हिन्दू कानून के अनुसार धर्मांतरण के पश्चात् पूर्व शादी समाप्त नहीं होती तथा पुनर्विवाह धारा 494 के अनुसार दंडनीय है। विवाह, तलाक और पंथ यह स्वभाव और बहुत कुछ आस्था और विश्वास का विषय है,सुविधा का विषय नहीं है।
एक हिन्दू कलमा पढक़र मुसलमान बन जाता है या एक मुसलमान मंत्र पढक़र हिन्दू बन जाता है। यह भरोसा, विश्वास और आस्था एवं तर्क का विषय है। किसी के द्वारा पंथ का घटिया दुरुपयोग तुरन्त रोका जाना चाहिए, मतान्तरण सुविधा के लिए नहीं होना चाहिए। यह बहुत गम्भीर, सामाजिक, राजनीतिकअपराध है। न्यायाधीशों ने कहा कि समान नागरिक संहिता उत्पीडि़त लोगों की सुरक्षा तथा राष्ट्र की एकता एवं अखंडता दोनों के लिए अत्यावश्यक है। न्यायालय ने आगे यह भी कहा कि जिन लोगों ने विभाजन के पश्चात् भारत में रहना स्वीकार किया, उन्हें स्पष्ट रूप से यह जान लेना चाहिए कि भारतीय नेताओं का विश्वास दो राष्ट्र या तीन राष्ट्र के सिद्धांत में नहीं था और भारतीय गणतंत्र में मात्र केवल एक राष्ट्र है। कोई भी समुदाय पंथ के आधार पर पृथक अस्तित्व बनाए रखने की मांग नहीं कर सकता। विधि ही वह प्राधिकरण है न कि पंथ जिसके आधार पर पृथक मुस्लिम पर्सनल लॉ को संचालित करने एवं जारी रखने की स्वीकार्यता मिली। इसलिए विधि उसे अधिक्रमित कर सकती है या उसके स्थान पर समान नागरिकसंहिता की स्थापना कर सकती है।
न्यायालय के निर्णय में प्रधानमंत्री को संविधान के अनुच्छेद 44 पर स्वच्छ दृष्टि डालने को कहा गया, जिसमें राज्य के द्वारा सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की बात कही गई है। सरकार को यह भी निर्देश दिया गया कि विधि आयोग को स्त्रियों के वर्तमान मानवाधिकारों को दृष्टि में रखते हुए एक विस्तृत समान नागरिक संहिता का प्रारूप तैयार करने को कहा जाए। बीच में कालखंड में एक समिति बनाई जानी चाहिए जो इस बात का निरीक्षण करे कि कोई मतान्तरण के अधिकार का दुरुपयोग न कर सके। ऐसा कानून बनाना चाहिए जिससे प्रत्येक नागरिक जो धर्मांतरण करता है वह पहली पत्नी को तलाक दिए बिना दूसरी शादी नहीं कर सकता। उच्चतम न्यायालय ने सरकार के विधि एवं न्याय मंत्रालय के सचिव को भी यह निर्देश दिया कि उत्तरदायी अधिकारी के द्वारा अगस्त 1996 तक इस आशय का शपथ पत्र प्राप्त होना चाहिए कि न्यायालय के निर्देश के पश्चात् केन्द्र सरकार के द्वारा नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने हेतु कौन से कदम उठाए गए और क्या प्रयास किए गए, जो पिछले चार दशकों से शीत गृह में पड़ा हुआ है लेकिन सरकारों ने कुछ नहीं किया।(क्रमश:)
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