क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है?(8)
अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 08-11-2011
संविधान की आत्मा को पहचानने वाले, बड़े संविधानविदों का कहना है कि संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द की जरूरत नहीं थी, यह संविधान की आत्मा में निहित भाव था, परन्तु श्रीमती इंदिरा गांधी को मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए ऐसा करना पड़ा। श्रीमती गांधी ने ऐसा क्यों किया? लेकिन धर्मनिरपेक्षता शब्द के साथ धर्म भी जुड़ा है अत: आइए बिना पूर्वाग्रह के इस ओर राष्ट्र के हित में एकदृष्टि डालें।
आज सारे विश्व के नीतिज्ञ इस बात को मानते हैं कि इस पृथ्वी पर श्रीकृष्ण से बड़ा राजनीति का जानकार कोई दूसरा नहीं था। विद्वानों की इस धारणा के बाद दूसरा नम्बर आता है कौटिल्य का और शेष आधे में विश्व के सभी राजनीतिज्ञ समेटे जा सकते हैं।
बस केवल ढाई राजनीतिज्ञ ही इस पृथ्वी पर हुए हैं। श्री कृष्ण ने विषम से विषम परिस्थिति में यह नहीं कहा कि मैं इस पृथ्वी पर 'राजनीति' की स्थापना करने को अवतरित हुआ। उनका स्पष्ट उद्घोष है-
''धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे''
मैं बार-बार आता हूं ताकि धर्म की स्थापना हो सके।
इस धर्म में एक बात और छिपी है-
''साधुओं का त्राण और दुष्टों का नाश''
दूसरी बात जो आज विचारणीय है और सनातन वाङ्गमय के हर आराधक को जाननी होगी वह है भगवान के ये वचन कि 'अपने धर्म में रहकर मृत्यु को प्राप्त होना अच्छा है, पर दूसरों का धर्म विनाशकारी है, वह भयावह है।'' यह उक्ति विश्व के सबसे बड़े नीतिज्ञ की है। क्या यहां भगवान कृष्ण को हम साम्प्रदायिक कहें और अपनी ओढ़ी हुई धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर उन्हें नकार दें। क्या यह उचित होगा?
थोड़ा सा इस बात को इसलिए समझना होगा क्योंकि भारत में जो कानून बनते हैं, उनका सबसे बड़ा स्रोत धर्म है। 'स्वधर्म' की बात भगवान इसलिए करते हैं क्योंकि जन्म के साथ ही मनुष्य के संस्कार एक विशेष दिशा में बनने शुरू हो जाते हैं और उसी के अनुसार उसकी श्रद्धा का निर्माण होता है।
एक विशुद्ध आर्यसमाजी परिवार का उदाहरण लें। उस परिवार में उत्पन्न बालक को वेदों में अगाध निष्ठा होगी, वह एक ही ईश्वर को मानने वाला होगा, स्वामी दयानंद के विचारों पर आस्था रखने वाला होगा, स्पष्टवादी होगा। अगर ऐसे किसी युवक को आप यह कहें कि, ''तुम कल से पांचों वक्त नमाज पढऩी शुरू कर दो'' तो यह उसके लिए विनाशकारी कृत्य हो जाएगा। हो सकता है वह विक्षिप्त हो जाए। ऐसा ही किसी आस्थावान मुस्लिम को यह कहें कि वह रोज सत्यनारायण की कथा घर पर करवाए तो उसकी क्या हालत होगी? वह असहज हो जाएगा।
ऐसी बात नहीं कि इनके मन में कोई द्वेष है, बात यह है कि यह स्वधर्म के विरुद्ध है। वेदवाणी है कि केवल स्थित प्रज्ञ या ब्रह्मज्ञान को प्राप्त व्यक्ति की दृष्टि ही ऐसी हो सकती है। भगवान कहते हैं, ''पर धर्मो भयावह:।'' ऐसे लोग जो यह दिखावा करते हैं कि वह सारे धर्मों को एक ही दृष्टि से देखते हैं, या तो वह ब्रह्मज्ञानी हैं या पहले दर्जे के बेईमान व धूर्त्त 'धर्मनिरपेक्ष' कौन है इसका फैसला आप स्वयं करें। किसी धर्म का अपमान न करो, विवेकानंद कहते हैं, परन्तु अपना धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। धर्मनिरपेक्ष शब्द बड़ा भयावह है, क्योंकि इसे तथाकथित राजनीतिज्ञ अस्तित्व में लाए हैं इससे बचना होगा। यह प्राणघातक है।
धर्मनिरपेक्षता, देश की एकता, राष्ट्रभक्ति और सामाजिक सौहार्द की दुहाई राजनीतिक दल और उनके नेता दे रहे हैं, मुझे लगता है कि उन्हें धर्म, देश, राष्ट्र की न तो जानकारी है और न ही चिंता। कांग्रेस,कम्युनिस्टों, तीसरे और चौथे मोर्चे के नेता और अनेक क्षेत्रीय नेता ऐसा कर रहे हैं। आजादी के बाद से ही मजहबी संकीर्णता, जातिवाद और क्षेत्रवाद जितना इन्होंने फैलाया है उतना किसी ने नहीं फैलाया। अल्पसंख्यकों के वोट थोक में बटोरने के लिए बहुसंख्यक हिन्दुओं की आस्थाओं पर लगातार आघात करना और राष्ट्रीय अस्मिता पर प्रहार करना इनकी आदत बन चुका है। जो कुछ आज हो रहा है उसकी शुरूआत अंग्रेजों के शासनकाल में हुई थी, जिसकी चर्चा मैं कल करूंगा। (क्रमश:)
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