क्या हिन्दुस्तान में हिन्दू होना गुनाह है? (18)
अश्वनी कुमार, सम्पादक (पंजाब केसरी)
दिनांक- 18-11-2011
कांग्रेस का साम्प्रदायिक चेहरा बार-बार सामने आया है। पहले कांग्रेस के इक्का-दुक्का नेता ही अपने बयानों से चर्चित होते थे, अब हर कोई प्रचार पाने के लिए किसी भी हद तक पहुंच जाता है। कांग्रेस ने अपने कुछ राजनीतिज्ञों को इस काम पर लगाया है कि वे जमकर साम्प्रदायिक राजनीति करें और कोई मौका न चूकें।
- बटला हाऊस मुठभेड़ में शहीद हुए इंस्पैक्टर महेश शर्मा की शहादत का अपमान किया गया।
- 26/11 के मुम्बई हमले में शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे और साथियों की शहादत पर सवालिया निशान लगाया गया। आखिर क्यों?
बटला हाऊस मुठभेड़ जांबाज पुलिस बलों की सफलता थी। मारे गए आतंकी मुसलमान थे। कांग्रेस के भोंपू दिग्विजय सिंह के लिए मौका था। दिग्गी ने आजमगढ़ दौरे के दौरान बटला हाऊस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग कर डाली। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की तरफ से शहीद महेश चन्द्र शर्मा के परिवार से सहानुभूति व्यक्त करने की बजाय आरोपी आतंकियों के परिवार से सहानुभूति व्यक्त की गई।
26/11 के मुम्बई हमले में शहीद हेमंत करकरे को लेकर पहले अब्दुल रहमान अंतुले और बाद में दिग्गी राजा ने सवाल उठाए। दिग्गी राजा ने सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किया कि हेमंत करकरे ने हमले से दो घंटे पहले उनसे फोन पर बातचीत की और करकरे ने हिन्दू संगठनों से अपनी जान को खतरा बताया था। उनकी इस बातचीत का कोई फोन रिकार्ड नहीं मिला। दुनिया जानती है कि 26/11 हमले के जिम्मेदार पाक के आतंकी संगठन हैं तो फिर इस हमले का रुख हिन्दू संगठनों की ओर मोड़ कर दिग्गी ने भारत सरकार के स्टैंड को ही कमजोर किया। कांग्रेस ने शहीदों की शहादत को झुठलाने का काम किया। शहीद करकरे की पत्नी भी कांग्रेस के रवैये से आहत हुईं और उन्होंने कांग्रेस की निंदा की लेकिन कांग्रेस खामोश रही। उसे तो मुस्लिम वोट बैंक की चिंता है। संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु और 26/11 मुमबई हमले के दोषी कसाब को फांसी की सजा पर भी कांग्रेस ने जमकर साम्प्रदायिकराजनीति की।
अफजल का अर्थ होता है विद्वान और श्रेष्ठ लेकिन आजकल एक और ही अफजल को लेकर देश में बहस छिड़ी है। आज की तारीख में अफजल गुरु वह शख्स है, जिसको भारतीय संसद पर वर्ष 2001 के हमले के मामले में न्यायालय ने फांसी की सजा दी है। न्यायालय के आदेशानुसार अफजल को 20 अक्तूबर, 2006 को दिल्ली की तिहाड़ जेल में फांसी दी जानी थी, लेकिन सियासतदानों की कारस्तानी और सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण 11 अक्तूबर, 2006 को निर्णय लिया गया कि अगले आदेश तकअफजल को फांसी नहीं दी जाएगी। भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने इस आशय का पत्र तिहाड़ जेल प्रशासन को लिखा, जिसकी पुष्टि जेल प्रशासन ने भी की। अफजल प्रकरण में जिस प्रकार से केन्द्र में काबिज सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने बयान जारी किए हैं, वह किसी भी सूरत में राष्ट्रहित में नहीं कहे जा सकते हैं। काबिले गौर है कि जब भी कहीं भारत राष्ट्र का जिक्र किया जाता है तो वहां प्रतीक के रूप में संसद या अशोक स्तम्भ प्रयुक्त किया जाता है। अफजल ने किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि संसद पर हमले की पृष्ठभूमि का ताना-बाना बुनकर पूरे राष्ट्र पर हमला किया। उसने भारत की अखंडता और सम्प्रभुत्ता को तार-तार करने का गुनाह किया है, जिसकी सजा मौत और सिर्फ मौत है,लेकिन हमारे सियासतदानों, विशेषकर कांग्रेसियों ने जिस तरह से वोट की राजनीति से अभिभूत होकर मुस्लिम तुष्टीकरण का खेल खेला है, वह किसी भी सूरत में सच्चे भारतीय के लिए सहनीय नहीं है। सबसे पहले जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद और फिर वहीं के पूर्व मुख्यमंत्री फारूकअब्दुल्ला का कहना कि यदि अफजल को फांसी दी जाती है तो प्रदेश की कानून-व्यवस्था बिगडऩे की आशंका है, हास्यास्पद लगता है। आखिर एक व्यक्ति जिसने पूरे राष्ट्र के प्रजातंत्र के मंदिर पर हमला किया है, उसको सजा नहीं दिए जाने की पैरवी एक जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा करना ठेस पहुंचाता है। इतना ही नहीं, गुलाम नबी आजाद के बयान का जिस प्रकार से कांग्रेस ने समर्थन किया, वह समझ से परे था। कई राज्यों में होने वाले विधानसभा और निकाय चुनावों के कारण कांग्रेस ने अफजल मामले को उलझाकर रख दिया था। 26/11 के मुम्बई हमले में पकड़े गए एकमात्र जीवित आतंकवादी कसाब के मामले में भी यही रुख अपनाया गया जिसकी चर्चा मैं कल करूंगा। (क्रमश:)
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